दिनांक 04 मार्च 2018 को मेघ जागृति फाउँडेशन, गढ़ा, जालंधर द्वारा आयोजित एक समारोह में अपनी बात रखते हुए डॉ. ध्यान सिंह और प्रो. के.एल. सोत्रा इस बात पर एकमत थे कि मेघ मूल रूप से एक जनजाति थी जिसे शुद्धिकरण के ज़रिए हिंदू दायरे में लाया गया था. जैसा कि बताया जाता है कि मुग़लों ने सप्तसिंधु क्षेत्र के लोगों को हिंदू कहा था और उस अर्थ में मेघ पहले भी ‘हिंदू’ थे. लेकिन शुद्धिकरण के समय तक हिंदू शब्द अपना एक अलग राजनीतिक अर्थ पाने लगा था (यहाँ आरएसएस की विचारधारा इंगित है).
इस बीच यह जानना रुचिकर रहा कि भारत में जनजाति किसे कहते हैं. किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के निम्नलिखित आधार बताए गए हैं-
आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक पृथक्करण, समाज के एक बड़े भाग से संपर्क में संकोच, पिछडापन. (देखें यह लिंक . एक अन्य लिंक National Commission for STs से)
किसी खास क्षेत्र में उनका निवास होना भी एक शर्त है जिसे भौगोलिक पृथक्करण के तहत रखा गया है. जनजातीय लक्षणों में मेघों की देहुरियाँ और उनके द्वारा मृत पूर्वजों (वड-वडेरों) की पूजा और देरियों पर चौकी देना आदि का अध्ययन करना होगा. मेघ संस्कृति के तहत उनके सामाजिक रस्मो-रिवाज़, उनके अपने लोक-गीत (जो मेरे अनुमान के अनुसार नहीं के बराबर होंगे), उनकी बोलचाल की भाषा जो मूलतः इंडो-तिब्बतन भाषा समूह की है जो डोगरी और स्यालकोटी शैली में बोली जाती है, उसका अध्ययन ज़रूरी है. उसकी शब्द संपदा, उच्चारण और वाक्य विन्यास अपनी विशिष्ट पहचान रखता है. इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए कि मेघों की भाषा में साधारण पंजाबी के मुकाबले पाली-प्राकृत के शब्द कितनी मात्रा में हैं. यह तो निश्चित है कि पंजाबी के मुकाबले मेघों की भाषा में संस्कृत मूल के शब्द कम है. आर्यसमाज के संपर्क में आने के बाद मेघों की भाषा में संस्कृत के कुछ शब्द आए हो सकते हैं. वैसे भाषा के तौर पर पंजाबी काफी दूर तक संस्कृत और पर्शियन दोनों से प्रभावित हुई है लेकिन अनुमान है कि मेघों की जनसंख्या की लोकेशन के अनुसार उनकी पंजाबी का पर्शिनाइज़ेशन अधिक हुआ होगा. (इस पर भाषाविज्ञान की शोध पद्धति के अनुसार शोध ज़रूरी है).
‘भौगोलिक पृथक्करण’ के नज़रिए से मेघ भगत अधिकतर जम्मू के तराई क्षेत्र में ही रहे हैं. 18वीं और 19वीं शताब्दी में कुछ मेघ परिवार रोज़गार की तलाश में स्यालकोट की ओर गए और 1947 में भारत विभाजन के कारण वे ज़्यादातर जम्मू और पंजाब में लौटे. उन्होंने अपनी भौगोलिक सीमाओं को लाँघा तो था लेकिन वैसा कठिन परिस्थितियों की वजह से और रोज़गार की तलाश में किया गया था. कई मानव समूह ऐसी परिस्थितियों में अपने मूल स्थान से पलायन करते देखे गए हैं.
जम्मू में मेघ समाज आर्थिक पराधीनता की स्थिति में था. उनकी विशिष्ट आंतरिक परंपराएँ भी थीं. उनकी शादियाँ अपने समुदाय से बाहर नहीं होतीं थीं. इनके सामाजिक रीति-रिवाज़ों, उत्सवों, त्योहारों, भोज आदि में दूसरे समुदायों के लोग भाग नहीं लेते थे. उनकी आबादी की भौगोलिक स्थिति भी संभवतः इसका कारण रही होगी. सामाजिक अलगाव की वजह समय की ज़मीन में बहुत गहरी होती है. खोदते जाइए बहुत कुछ मिलेगा, वो भी जिसका आज कुछ ख़ास महत्व नहीं है.
जम्मू में मेघ समाज आर्थिक पराधीनता की स्थिति में था. उनकी विशिष्ट आंतरिक परंपराएँ भी थीं. उनकी शादियाँ अपने समुदाय से बाहर नहीं होतीं थीं. इनके सामाजिक रीति-रिवाज़ों, उत्सवों, त्योहारों, भोज आदि में दूसरे समुदायों के लोग भाग नहीं लेते थे. उनकी आबादी की भौगोलिक स्थिति भी संभवतः इसका कारण रही होगी. सामाजिक अलगाव की वजह समय की ज़मीन में बहुत गहरी होती है. खोदते जाइए बहुत कुछ मिलेगा, वो भी जिसका आज कुछ ख़ास महत्व नहीं है.
मेघों के पिछड़ेपन का इतिहास भारत की अन्य जनजातियों के इतिहास से अलग नहीं है. सदियों से चले आ रहे सिस्टम की वजह से अशिक्षा, नियमित आय न होना और आर्थिक निर्भरता, तंग भौगोलिक घेरा और उस घेरे में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की दूसरों के द्वारा लूट, वन संसाधनों का नाश (मेघों के प्राकृतिक निवास वाले जंगलों के दो बार जलने या जलाए जाने की बात कही जाती है). अकाल और प्लेग जैसी आपदाओं ने भी समय-समय पर मेघों के समग्र जीवन को बुरी तरह बर्बाद किया जो उनके पिछड़ेपन की एक और बड़ी वजह रही.
फिलहाल ऊपर किसी बात के होते हुए भी आज मेघ समुदाय आर्यसमाज की सीमित-सी शुद्धिकरण की प्रक्रिया और आर्यसमाज के सामाजिक आंदोलन से ज़ुड़ कर जनजातीय स्थिति से निकला और मनुवादी जातीय परंपरा में शामिल हुआ है. मेघों के इतिहास का यह एक ख़ास मोड़ रहा. जहाँ तक नज़र देखती है जातीय व्यवस्था में आ कर मेघों को कुछ लाभ हुआ है. आगे चल कर जातियों का सिस्टम किस राह पर ले जाएगा वो देखने वाली बात होगी.
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