सदियों की अनपढ़ता झेल चुकी जातियों की बौद्धिक कठिनाइयां जल्दी दूर नहीं होतीं. इसका एक उदाहरण हाल ही में इक्का-दुक्का सक्रिय सीनियर्स के मन में उभरा और व्यक्त हुआ यह विचार है कि मेघ समाज में जो गोत्र प्रथा है वह ऋषि गोत्र के बिना या तो अधूरी है या सिरे से गलत है. वे मानते हैं कि मेघ बिरादरी के गोत्र वास्तव में ऋषि गोत्र ही हैं या फिर मेघ भगतों का वास्तविक गोत्र केवल ‘भारद्वाज’ है.
डॉ. ध्यान सिंह को जहां तक जानकारी मिली उन्होंने बिरादरी के बहुत सारे गोत्रों की एक सूची अपने शोधग्रंथ में शामिल की. हरेक गोत्र के अपने दायरे में आने वाले लड़के-लड़कियों की आपस में शादियाँ नहीं होतीं. यह कमोबेश जाटों की खाप प्रणाली जैसा है. डॉ. ध्यान सिंह द्वारा दी गई सूची में भारद्वाज, अत्री, कौशल या कश्यप गोत्र शामिल नहीं किए हैं (हालाँकि ये ऋषि गोत्र मेघों में देखे गए हैं, शायद कुछ और भी हों). भारद्वाज गोत्र बहुतायत से देखा गया है. लेकिन इस इंप्रेशन से बचना भी बहुत ज़रूरी है कि सारे मेघ समाज का ऋषि गोत्र केवल ‘भरद्वाज’ या ‘भारद्वाज’ ही है. अन्य ऋषि गोत्र भी इस समाज में हैं.
क्या ऋषि गोत्र स्पिंडा रिलेशनशिप को कवर करने की क्षमता रखते हैं? यह एक ज़रूरी सवाल है.
कई जातियों में पाए जाने वाले ऋषियों और ऋषि गोत्रों में समानता है और यह समानता जाति छिपाने में सहायक हो सकती है. शायद इसी लिए ऋषि गोत्र के प्रति आकर्षण रहा है. हिंदू परंपराओं में हो सकता है कि किसी के 'नाम' की 'हिस्ट्री' इस प्रकार हो :- “नाम : हरे सिंह गोयल. गोत्र : भारद्वाज. वर्ण : क्षत्रिय. जाति : जाट”. उससे आगे जाटों के गोत्रों या खापों की कहानी और भी बड़ी मिलेगी. मेघों में भी यह प्रवृत्ति मिल सकती है.
जो सीनियर मेघ भगत आजकल ऋषि गोत्र पर विशेष ध्यान दे रहे हैं उनसे विनती है कि वे अपनी पसंद के ऋषियों से संबंधित वैदिक और पौराणिक कहानियों को विस्तार से पढ़ें और फिर अपना मन बनाएँ. वे मेघ ऋषि पर भी थोड़ी खोज-बीन कर लें यदि अन्यथा कोई परहेज़ न हो.
जहाँ तक डॉ. ध्यान सिंह के थीसिस में बताए गए गोत्रों की बात है तो यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन्होंने वह उल्लेख जम्मू और अन्य जगह स्थित मेघों की देरियों के संदर्भ में किया है. सुना नहीं कि उन देरियों में ऋषियों-मुनियों की देरियां हों. मेघों में देरियों की परंपरा किस समय की है या किस सभ्यता से संबंधित है और ऋषि गोत्र की परंपरा कितनी पुरानी है, ये शोध के विषय हो सकते हैं. इस बारे में कुछ संदर्भ या संकेत कल्हण लिखित राजा मेघवाहन के आख्यान से मिल सकते हैं.
आज कई मेघों को यदि किसी कारण से अपना गोत्र याद नहीं तो वे मौखिक परंपरा में अधिक सुने गए ऋषि गोत्र का सहारा लेते हैं. शादी के उद्देश्य से वे पंडित-पुरोहित को ऋषि गोत्र बता देते हैं. यदि दोनों पार्टियों का ऋषि गोत्र एक ही निकल आए तो फिर जाति (गोत्र) पूछ ली जाती है. यानि भारद्वाज गोत्र के बाद बताना होता है कि वे लुचुंबे हैं या साकोलिया या ममुआलिया या मंगोच हैं, तभी मामला सुलटता है. शादी-ब्याह के मामले में मेघों की सभ्याचारक (cultural) परंपरा वही गोत्र प्रणाली है जो ऋषि गोत्र से मुक्त है.
यह आलेख भी ज़रूर देख लीजिए. → गोत्र प्रथा. दो लिंक और देख लीजिए पहला और दूसरा.
इतिहास जानना जरूरी है ... पर शायद इसकी आवश्यकता वक़्त अनुसार ख़त्म हो जाये ...
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