"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


13 April 2019

The Philosophy of History - इतिहास का दर्शन

कहा जाता है कि पहले धर्म विकसित होता है और दर्शन यानी फ़लसफ़ा बाद में. यही बात इतिहास के दर्शन पर भी लागू होती है. पहले इतिहास अस्तित्व में आता है और बाद में उसकी विशेषताओं या दोषों के आधार पर उसका फ़लसफ़ा लिखा जाता है. साधारण शब्दों में कहें तो इतिहासकारों द्वारा लिखी गई सामग्री को समझने के लिए जो तरीक़े विकसित किए जाते हैं उनको ‘इतिहास का दर्शन’ कह दिया जाता है.

इतिहास का अर्थ है वे घटनाएं और कार्य जो इंसानी ज़ात के अतीत को (कालक्रमानुसार भी) बताते हैं. इसके दो भाग होते हैं -  पहला - ‘वास्तव में क्या हुआ’ उसका विश्लेषण, और दूसरा - जो हुआ उसका अध्ययन, विवरण और व्याख्या. इसकी बुनियाद पुरात्त्व संबंधी प्रमाण, पुस्तकीय दस्तावेज़, प्रत्यक्ष स्थिति और अनुमान पर खड़ी होती है.

आज के अर्थ में जिसे इतिहास कहते हैं वैसा इतिहास लिखने की परंपरा भारत में नहीं थी. पहली ऐतिहासिक संदर्भों वाली कल्हणकृत पुस्तक राजतरंगिणी को माना जाता है जिसे बाहरवीं शताब्दी की रचना कहा गया है. इसे भारत में इतिहास लेखन का पाषाणयुग कहा जा सकता है. इसकी अपनी सीमाएँ थीं. इसकी प्रामाणिकता के बारे में आप एक हद तक ही आश्वस्त हो सकते हैं. इसमें पौराणिक संदर्भ बड़ी मात्रा में हैं. कहने का तात्पर्य यह कि 2री से 4थी शताब्दी के बीच संस्कृत में जो साहित्य रचा गया उसे प्रत्यक्ष के साथ गड्डमड्ड करके एक अलग तरह का कथात्मक रूप देने की कोशिश की गई जिसे दुनिया में इतिहास लेखन की मिथ पद्धति के तौर पर ही जाना जाता है.
दूसरा समय वो था जब किसी समय किसी क्षेत्र में पैदा हुए विजेता को ही इतिहास लिखने या लिखवाने का राजकीय या धार्मिक अधिकार था. 'राजतरंगिणी' के बाद भी इस सिलसिले में मिथ (पौराणिक कथाओं) में इतिहास पिरोने की परंपरा जारी रही. यहाँ तक कि कई बार उन्हें आंशिक इतिहास कहना भी कठिन हो जाता है, हालाँकि उनमें ऐतिहासिक संकेत होते हैं या हो सकते हैं. उनमें विजेता वर्ग की कबीलाई कथाएं, परंपराएं और व्यवहार (संस्कृति, सभ्यता) शामिल रहता है. इतिहास लेखन की इस पद्धति में इंसान की प्राकृतिक गरिमा एक संयोग का विषय बन कर रह जाती है. उससे यह जानना कठिन हो जाता है कि तर्कसंगत क्या है और नैतिक रूप से स्वीकार्य क्या है.

18 वीं शताब्दी में 'इतिहास का दर्शन' एक जबरदस्त परिवर्तन से गुज़रा. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के साथ ही ईश्वरीय और धर्म शास्त्रीय नज़रिए को बहुत बड़े स्तर पर चुनौती मिली. इसके साथ ही इतिहास में मिश्रित मिथ और उनकी लेखन शैली पर प्रश्नचिह्नों की बौछार हो गई और वे गलने लगे. अब इतिहास को लेकर एक नया नज़रिया और दर्शन विकसित हो रहा है :-  

“इतिहास सिर्फ वो नहीं है, जिसे शासकों ने लिखवाया है और जो लिखा गया है बल्कि इतिहास वो भी है जिसे हमारे पुरखों ने सहा है और जो लिखा नहीं गया है.”

यानि जो इतिहास लिखा नहीं गया वो अस्तित्व में है. यह दर्शन एक नए इतिहास का निर्माण कर चुका है  जिसका दर्शन बाद में पुनः लिखा जाएगा.

1 comment:

  1. इतिहास हमेशा राज दरबार, लिखने वाले और उसके मत से प्रभावित रहता होगा ऐसा मेरा मानना है ... पूर्व में जो ही कहा लिखा गया उसको अपने विज्ञानिक दृष्टिकोण अनुसार देखना कुछ हद तक उचित लगता है ... आज कुछ हद तक शायद इतिहास लेखन ठीक हो पर पूरी तरह ठीक होगा ऐसा कहना मिथ्या ही है ... और ये आने वाली पीढियां ही निश्चित करेंगी ...

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