एक परंपरा है कि कोई धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद, कीर्तन-आरती करने के बाद हम उस अनुष्ठान का भोग भी लगाते हैं. उक्त पुस्तक का अनुवाद संपन्न हुआ है. उस पर लिखे गए ये चार ब्लॉग एक प्रकार का भोग हैं और यह चौथा ब्लॉग उस भोग का भी अंतिम पड़ाव है.
यहां पहुंच कर मैं सबसे पहले परम दयाल फ़कीर चंद जी का एहसान मानता हूं कि उनकी शिक्षा के सदके मैं जीवन भर किसी भी प्रकार की धार्मिक लूट से बचा रहा. मैं धार्मिक नहीं हुआ. धर्म में धंसा भी नहीं. नास्तिक-सा ज़रूर हो गया लेकिन वो दरअसल संशयवाद था जो बचपन से ही मेरे साथ चल रहा था. वो मेरी जीवन शैली का हिस्सा था. उसे फ़कीर की शिक्षाओं ने सत्य के प्रति आश्वासन से पोषित किया. मैंने सही मायनों में धर्म को समझा और धार्मिक-सा हो गया. मेघ समुदाय के बारे में मैंने कुछ कार्य किया और उनके इतिहास की कई कड़ियां जोड़ने का कुछ कार्य मैं करता रहा. इस कार्य की पृष्ठभूमि में भी फकीर का दिया हुआ एक विशेष संस्कार था जिसने मुझसे यह कार्य करवा लिया. इतना कह देने के बाद यह जोड़ना भी ज़रूरी है कि हम संस्कारों के बने हैं और उन्हीं के अनुसार हमारा कार्य व्यवहार चलता जाता है. वे समय-समय पर उभर कर मूर्त रूप लेते रहते हैं.
पिताजी 14 वर्ष तक फ़कीर की संगत में रहे. वे उनकी शिक्षाओं का प्रतिरूप हो चुके थे. वे जो भी कहते वह फ़कीर की शिक्षाओं के अनुरूप होता. जीवन भर उनका मार्गदर्शन मुझे मिला. इस तरह से फ़कीर और उनका जीवन-दर्शन और जीवन-व्यवहार पिताजी के रूप में भी मेरे लिए उपलब्ध रहा. फ़कीर का चोला छूट जाने के बाद भी उनके उपलब्ध रहने की भावना हमेशा बनी रही. वो हमें ट्रेनिंग ही ऐसी दे गए थे कि दिल ने कभी माना ही नहीं कि वे दूर हैं. वो आज भी अंग-संग हैं. उन्होंने जो-जो कार्य करने का संस्कार दिया हुआ है वे करवाते रहते हैं.
अंत में यह कि उनका कहा हुआ सच, उनका किया हुआ कार्य धन्य है. उनका यह अनुभव-ज्ञान भी धन्य है कि अंतिम सच्चाई कोई नहीं जानता.
सब का भला.
संभवतः कोई भी अंतिम पड़ाव नहीं होता है और नये-नये रूपों में पुनः प्रकट होता है । यदि भोग अलौकिक हो तो बार-बार हाथ पसारा अवश्य होता है ।
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