जाटों और मेघों का सह-अस्तित्व रहा है. दोनों का सांस्कृतिक संघर्ष और धार्मिक नज़रिया भी लगभग एक जैसा है. आर्य समाज द्वारा शुद्धीकरण के बाद दोनों के अनुभव भी लगभग एक जैसे रहे. जनेऊ पहनने के बाद जिन मेघों ने अपने आसपास की उँची जाति वालों को ‘गरीब नवाज़’ कहना छोड़ कर अभिवादन में ‘नमस्ते’ कहना शुरू किया तो उन्हें मारा-पीटा गया.
शुद्धीकरण के बाद मेघों में यह भावना पैदा हो गई थी कि समाज में उनके स्तर को ऊंचा उठा दिया गया है जिसे समाज सहज स्वीकार करेगा. लेकिन ज़ाहिर है कि आगे चल कर उन्हें कड़ुवे अनुभवों से भी गुज़रना पड़ा. मेघों को सामूहिक तौर पर शक्ति प्रदर्शन करने वाली जाति के तौर पर कम ही देखा गया है. इसके उलट जाट (जट्ट) समुदाय अपने जुझारूपन के लिए मशहूर है. वे संघर्ष करते हैं और अड़चनों को अपने शरीर पर सहने की ग़ज़ब की कूव्वत उनमें है.
मेरे एक जाट मित्र राकेश सांगवान जी ने इतिहास के पन्नों से एक घटना ‘जाट और जनेऊ’ नामक आलेख से साझा की है जिसका सार नीचे दे रहा हूं. इससे आप शुद्धीकरण के सामाजिक, धार्मिक और सियासी अर्थों को अलग-अलग करके देख पाएंगे. राकेश जी लिखते हैं -
मेरी जानकारी अनुसार जाट के गले में यह जनेऊ आर्य समाज आने के बाद ही आया. हालाँकि, हर जाट जनेऊ नहीं धारण करता पर जिन्होंने भी धारण किया उन्होंने बहस और बग़ावत में धारण किया था….1883 के आसपास की बात है, चौधरी मातू राम हुड्डा (पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के दादा) ने जनेऊ धारण किया और अन्य जाट-भाइयों को भी ऐसा ही करने के लिए कहा….इससे काफ़ी हलचल मच गई. काशी से एक ब्राह्मण बुलाया गया. उसने आते ही खडवाली गाँव में इस 'धर्म मर्यादा के विरुद्ध कार्य' के ख़िलाफ़ पंचायत बैठा दी. उसने कहा, "जाट शूद्र होते हैं, जनेऊ धारण करने का अधिकार नहीं है. भगवान इस बात से नाराज़ हो जाएँगे और आसपास के इलाक़े पर मुसीबत आ जाएगी. इसका जनेऊ उतरवा दो"....जब चौधरी मातूराम से यह सब कहा गया तो उन्होंने उत्तर दिया, "जनेऊ किसी कीकर पर तो टंगा नहीं है जो कोई भी उतार ले. मेरी गर्दन पर है. भाइयों के सामने गर्दन हाज़िर है. इसे काट दो, जनेऊ अपने आप उतर जाएगा". पंडित ने दूसरा विकल्प सुझाया, "इनको जाति से बाहर कर के हुक्का-पानी बंद कर दो. चौधरी मातूराम ने कहा, "मैं तो किसी के घर बिना बुलाए जाता ही नहीं. उन्हीं के घर जाता हूँ जो इज़्ज़त से बुलाते हैं. उन्हीं के घर हुक्का-पानी पीता हूँ जो घोड़ी की लगाम पकड़ कर घोड़ी से उतरने के लिए कहते हैं और स्वागत करते हैं."....सब तरफ़ सन्नाटा छा गया. खडवाली के कुछ लोग खड़े हो गए और कहने लगे, "ज़ैलदार साहब, हमारे घर चलो और हुक्का-पानी पियो और जिसका जी चाहे सो कर ले." बस फिर क्या था, चारों तरफ़ शोर मच गया, पंचायत बिखर गई. बहुत से लोगों ने जनेऊ धारण कर लिया….उस ज़माने में यह धर्म का भ्रम देहात में कम था. देहात वालों को इससे कुछ लेना-देना नहीं था. उनकी अपनी मान्यताएं थी. अपनी आस्था थी जैसे कि-- भैया/दादा खेडा/जठेरा या फिर किसी साधू-पीर-फ़कीर का समाधी स्थल. इन्हीं के नाम पर मेले लगते थे जोकि आजतक लगते आ रहें हैं.’
मैंने राकेश सांगवान जी द्वारा बताए गए इस प्रकरण को इसलिए यहां रख लिया है ताकि इसे पढ़ने वाले सचेत रहें कि यदि धर्म आपके भीतर या बाहर संघर्ष पैदा करता है तो धर्म को संशय की दृष्टि से देखने की ज़रूरत होती है.
धार्मिकता का व्यापार ही तुलसी के पत्तों को बड़ा-छोटा में बांटता है और पत्ते वही मानकर सशंकित होते हैं । जबकि धर्म निज स्वभाव होना चाहिए ।
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही कहा अमृता बिटिया।
Deleteसंशय की दृष्टि से तो हर चीज को देखना जरूरी है पर उसे विवाद तक ले जाना बिना किसी सब्जेक्ट के सिर्फ अजेंडा बन जाता है कई बार ... इतिहास की कई कड़ियों को बार बार जोड़ कर भी इतिहास के करीब ही जाया जा सकता है ... अच्छा आलेख ...
ReplyDeleteसही कहा दिगंबर जी. समस्या तभी होती है जब राजनीति सामाजिक सरोकारों की जगह रंगबिरंगे नारों तक सीमित हो जाए और राजनीति धर्म को इस प्रकार आगे करे कि मानवीयता, नैतिकता और सामाजिक कर्तव्य नज़र से हटने लगें.
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