Baba Faqir Chand |
A question had
been hanging on my mind whether Baba Faqir Chand, who spoke and wrote so much
on inner practices, had really got fed up with all such yogic practices.
It is certain that all divine visions experienced during
inner practices can continue till we exist in the body and till neural activity
continues. What happens after death is a matter of imagination and
entertainment. The fact is that nobody returned after ‘final death’ of heart and brain and did
not reveal his experiences about it. Stories of rebirth are fabricated and
shops keep humming with business.
I got a reference
from Bhagat Munshi Ram’s book ‘Santmat (The opinion of Saints)’. He writes:-
The
soul which realizes the third form of Guru gets liberated in due course. That
is why he (Faqir) has written in his last discourses that ‘he was against inner
practices. Whenever he sat for inner practices he surrendered to that form (Murti).
He sought shelter in that. Intentional inner practices were nothing but a come
back to the region of ego and he used to curse his mind and ask what good it
was for.’ Param Dayal Ji used to explain it in these words:-
“I
have pulled down the sand house”
It is clear
indication that inner practices done intentionally do tire us and a desire to
get rid of them takes us to yet another state though all such stages are
different experiences within neural activity. It is like child making sand house,
playing with it till getting
fed up with it and then again constructing something new.
Bhagat Munshi Ram |
यह बात मेरे मन पर अटकी थी कि साधन-अभ्यास का आंतरिक
अवस्थाओं पर इतना बोलने-लिखने वाले बाबा फकीर चंद क्या इन साधनों से उकता नहीं
होंगे.
यह तो तय है कि साधन के दौरान अलौकिक और दैवी दृष्य और विभिन्न
अवस्थाओं का अनुभव तभी तक होता है जब तक शरीर है या मस्तिष्क की न्यूरल गतिविधि
चलती है. हृदय और मस्तिष्क की ‘अंतिम मृत्यु’ के बाद क्या होता है यह केवल अनुमान और मनोरंजन
का विषय है. हृदय और मस्तिष्क की ‘अंतिम मृत्यु’ के बाद आज तक न कोई लौटा और न अपने तत्संबंधी अनुभव के
बारे में किसी ने कुछ बताया. पुनर्जन्म की कहानियाँ गढ़ ली जाती हैं और दुकानदारियाँ
चलती रहती हैं.
मुझे भगत मुंशीराम जी की पुस्तक ‘संतमत’ से यह उद्धरण मिला है. वे
लिखते हैं:-
जिस जीव पर उनकी परम
दयालुता से तीसरी मूर्ति के दर्शन हो जाते हैं, उसके धीरे-धीरे सभी बंधन कट जाते
हैं. इसलिए उन्होंने (फकीर ने) अपने आखिरी सत्संगों में
लिखा है कि मैं अभ्यास के विरुद्ध हूँ.
मैं जब कभी अपनी नीयत से अभ्यास करने बैठता हूँ तो अपने आप को उस
मूर्ति के हवाले कर देता हूँ. शरणागत हो जाता हूँ. अपनी नीयत से अभ्यास करना अब
अभिमान में आना समझता हूँ और मन को लानत देता हूँ कि ऐ मन तू क्या कर सकता है.” इस बात को
हुज़ूर परम दयाल जी महाराज इन शब्दों में ब्यान करते थे :-
मैंने अब सब ढेरियाँ ढा दीं.
इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि नीयत से साधन
करना एक प्रकार की थकान देता है और उस थकान से अलग होने की इच्छा व्यक्ति को एक
अन्य अवस्था में ले जाती है यद्यपि वे सभी अवस्थाएँ न्यूरल गतिविधि के ही अनुभव
हैं. यह लगभग वैसा ही है जैसे बच्चा रेत
का घर बनाता है, खुश होता है और उकता कर उसे तोड़ता है. फिर कुछ नया बनाता है.
यहाँ शायद सुरत शब्द योग की बात हो रही है. यदि मैं साधनों की अन्य विधियों को भी ध्यान में रखकर अपनी बात कहूं तो मेरा अनुभव यही कहता है कि अधिकांश पद्धतियों में ऑटो/सेल्फ सजेशन या सेल्फ-हिप्नोसिस के कारण व्यक्ति को वैसे अनुभूतियाँ होतीं हैं जो उसके चेतन/अचेतन/अवचेतन मन/मष्तिष्क पर बहुधा व्याप्त रहतीं हैं.
ReplyDeleteमसलन, यदि कोई यह मानता है कि साधना के दौरान समय-समय पर सहायता के लिए गुरु मार्गदर्शन देते हैं या मृत्यु के समय गुरूजी महाराज साथ ले जाने के लिए अवश्य आयेंगे तो यह धारणा उसके भीतर इतनी ऊर्जा से पनपती है कि वह इसे अपने सामने प्रत्यक्ष घटित होते देखता है. यह अनुभूति इतनी वास्तविक प्रतीत हो सकती है कि कोई तर्क इसका खंडन नहीं कर सकता.
लेकिन इसका एक पक्ष बहुत प्रबल है, और वह यह है कि बहुधा साधक सात्विकता का अभ्यास भी कर रहे होते हैं इसलिए अमूमन हर साधना व्यक्ति में कुछ सकारात्मक परिवर्तन अवश्य लाती है, भले ही वह केवल सतही हो. व्यक्ति अधिक करुणावान बनते हैं, वे भाईचारा निभाते है, शील-सत्य-संयम का पालन करते हैं.
आध्यात्म मूलतः अहंकार के परे जाकर आत्मदर्शन करने का मार्ग है. इसे आप किसी रूप में देखना चाहते हैं वह आपके ऊपर निर्भर करता है. यदि आप शून्य अवस्था के अनुरागी हैं तो आपको प्रयास करने पर वह मिलेगी. यदि आप देवताओं के दर्शन में उत्सुक हैं तो आपको वे 'सशरीर' दर्शन देंगे... यही नहीं, वे आपकी मनोकामनाएं भी पूरी करेंगे. यह कैसे होता है इसके लिए इस कमेन्ट में चर्चा कम पड़ जायेगी.
मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि हर व्यक्ति कोई कठोर अभ्यास नहीं कर सकता, लेकिन शुद्ध आचरण रखते हुए वर्तमान में अवस्थित रहने का अभ्यास तो लोग कर ही सकते हैं. इसके लिए केवल थोड़ी सी अंतर्दृष्टि ही चाहिए. मुझे लगता है वही पर्याप्त होगा. बहरहाल, प्रेरणा आप सभी से ले सकते हैं, प्रेरक साहित्य और सत्संग का महत्व इसी में है.
इस श्रृंखला के लिए धन्यवाद. बाबा फ़कीर चंद के जीवन और दर्शन में रूचि जगी है और लिंक्स के अध्ययन से निस्संदेह बहुत उपयोगी जानकारी मिलेगी.
सत्संग के लिए आभारी हूँ !
ReplyDeleteशुभकामनायें !
काफी अच्छी- अच्छी और नई बातें सीखने को मिल रही है ...धन्यवाद
ReplyDeleteशक्ति-स्वरूपा माँ आपमें स्वयं अवस्थित हों .शुभकामनाएं.
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