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डिग्री
पारे में बच्चों की परीक्षा
क्यों?
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माह
मई 2015
से
जून 2015
के
बीच में कबीर जयंती मनाने की
धूम मची है.
निमंत्रण बँट रहे हैं. तैयारियाँ
ज़ोरों पर हैं.
इधर
गर्मी का पारा चढ़ रहा है.
सैंकड़ों
लोगों के लू से मरने की खबरें
आ भी चुकी हैं.
सौ
साल पहले पैदा हुए जुलाहों
के जन्म का कोई पक्का रिकार्ड
नहीं होता था.
उन
दिनों किसी त्योहार या किसी
की शादी या गाय-भैंस
की पैदाइश के मौके के साथ
जन्मदिन याद रखने का रिवाज़
था.
सोचिए
कि जुलाहों के घर पैदा हुए
कबीर की सही जन्म तिथि किसे
पता थी.
जयंतियाँ
तय करने का लाभ मंदिरों में
चढ़ावे के रूप में आता है.
सो
पंडितों ने तिकड़म लड़ा कर
एक मुहूर्त तैयार किया जिसके
साथ कथाएँ जोड़ीं और कबीर का
जन्मदिन फिक्स हो गया.
हनुमान
तक का किया चुका है.
आपको
यह सोचना चाहिए कि दलित
तबकों में जन्में संतों के
जन्मदिन मई-जून
में और पूर्णमासी के दिन ही
क्यों पड़ते हैं अष्टमी और
नौवीं के दिन क्यों नहीं.
लोग कबीर जयंती मनाते हैं तो
एक हाथ में बिस्लेरी की बोतल
होती है और दूसरे में पसीना
पोंछनेे के लिए तौलिया.
ज़ाहिर
है कि इस मौके पर भाषण और भजन
पसीने की तरह आते हैं और सूखते
हैं.
भक्तजन (माताएँ बच्चों समेत) आते हैं और
बच्चों को गर्मी से बचाने के लिए
विशेष मशक्कत करनी पड़ती है.
कितने
लोग यहाँ से बीमार हो कर घर लौटते
हैं इसका हिसाब कौन रखता है जी?
आयोजक
यारो!
आप
जून में कबीर के नाम पर छबीलें
लगाओ.
अच्छा
काम है.
कबीर
जयंती मनाने के लिए ज्योतिष की नहीं बल्कि आपकी
अपनी समझदारी की ज़रूरत है.
कबीर
ज्ञान दिवस अक्तूबर-नवंबर
के सुहावने मौसम में सुविधा
के अनुसार मनाओ.
कबीर
भक्त खूब आएँगे और आपके
इकट्ठ का असर भी होगा.
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डिग्री
में भी बच्चे झंडे उठा सकते
हैं.
लेकिन
उनकी परीक्षा क्यों?
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