आरक्षण
के विरोध में -
आरक्षण
के हक़ में
एक ब्लॉगर ने सरकारी नौकरियों
में पदोन्नतियों में आरक्षण
पर एक पोस्ट लिखी जिसे पढ़ कर
कोई भी भावुक हो सकता था.
मैं
भी. उनकी
पोस्ट पढ़ने के बाद मैं कमेंट
लिखने से स्वयं को रोक नहीं
सका.
मुझे
लगा कि आरक्षण की समस्या का
एक ऐसा पहलू भी है जिसे पाठकों
तक पहुँचना चाहिए.
सारी
समस्या पर चर्चा करने के लिए
यह स्थान पर्याप्त नहीं है
तथापि कुछ बिंदु नीचे दिए हैं.
1.
यदि
भारतीय समाज दलित और सवर्ण
के रूप में बँटा न होता तो
आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं
होती.
2.
आरक्षण
प्रावधान जानबूझ कर कमज़ोर
रखे गए हैं.
जो
हैं उन्हें कभी तरीके से लागू
नहीं किया जाता और न ही आरक्षण
के नियम बनाने की संसद ने कोशिश
की.
3.
आज
भी आरक्षित पदों के सही आँकड़े
ब्यूरोक्रेसी तैयार नहीं
कराती कि कहीं दलितों की प्रशासन
में सहभागिता (participation)
न
बढ़ जाए.
4.
उत्कृष्ट
कार्य करने वाले दलितों की
रिपोर्टें आमतौर पर मध्यम
दर्जे की लिखी जाती हैं.
संघर्ष
करने और प्रमाण देने या वकीलों
को मोटी रकम देने के बाद
अदालत के ज़रिए कठिनाई से
रिपोर्टों को ठीक किया जाता
है.
इससे
उनकी शक्ति,
समय
और धन तीनों बर्बाद होते हैं.
5.
मैरिट
में आए दलित अधिकारियों को
हतोत्साहित और अप्रभावी करने
के सभी हथकंडे अपनाए जाते हैं.
उनके
स्थांतरण से पहले ही उनकी जाति
की सूचना नए सेंटर पर पहुँच
जाती है.
वहाँ
नित नए ढंग से और बहुत ही सभ्य
से तरीके से उन्हें उनकी जाति
याद दिलाई जाती है.
6.
दलित
यदि जनरल में कंपीट करके नौकरी
में आ जाए तो उसके सिर पर ‘सही
सूचना छिपाने’ की तलवार लटकती
रहती है.
जाति
पहचान छिपती नहीं.
7.
दलित
कर्मचारियों की पोस्टिंग के
बारे में ‘सीक्रेट अनुदेश’
या ‘मौखिक आदेश’ जारी किए जाते
हैं जो नियमों पर भारी पड़ते
हैं.
8.
जिन
दलितों की पदोन्नतियाँ होने
वाली होती हैं उनके विरुद्ध
झूठी शिकायतें करवा दी जाती
हैं.
9.
आजकल
नया ट्रैंड चला है कि रिटायरमेंट
से एक-दो
दिन पहले उनके सस्पेंशन के
आदेश निकलवा कर पेंशन लाभ
रुकवा दिए जाते हैं ताकि उन्हें
सरकारी नौकरी करने का ‘अंतिम
मज़ा’ चखाया जा सके.
ये
सारी बातें एससी/एसटी
कमिशन की जानकारी में हैं.
10.
एक
‘मैरिट’ वाले दलित और गैर-मैरिट
वाले दलित में से पदोन्नति
के लिए चुनाव करना हो तो कोशिश
की जाती है कि गैर-मैरिट
वाले को प्रोमोट किया जाए और
उसे ‘आरक्षण का नमूना’ बना
कर कहीं भी बैठा दिया जाए.
11.
सरकारी
कार्यालयों में जो होता है
उसके केवल संकेत यहाँ दिए हैं.
समस्या
टेढ़ी है और केवल आरक्षण या
पदोन्नतियों में आरक्षण का
विरोध करके उसका हल नहीं निकल
सकता.
किसी
जूनियर को पदोन्नत करके किसी
वरिष्ठ के ऊपर बिठाना अन्याय
है.
लेकिन
दलित की वरिष्ठता की रक्षा
कौन करेगा,
यह
प्रश्न कार्यालयों में पसरे
जातिवादी वातावरण में अनुत्तरित
रहता है.
इस
पर ब्लॉगर
ने एक और टिप्पणी लिखी जिसके
बाद मैंने लिखा-
मैं
(दलित)
अपने
आपको हिंदू कहता हूँ लेकिन
हिंदू दायरे में मेरी जो जगह
है वह असुविधाजनक और पीड़ादायक
है.
नौकरियों
में आए दलित ने हिंदुओं का
अधिकार नहीं मारा है बल्कि
दलित अपने अधिकारों से वंचित
लोग है जिन्हें आरक्षण का एक
कमज़ोर सा अस्थाई सहारा दिया
गया है.
दलित
जानते हैं कि नौकरियों समेत
इस देश के विभिन्न संसाधनों
पर उनके अधिकार को सदियों पहले
समाप्त कर दिया गया था.
आरक्षण
के विरोध का भी यही अर्थ है कि
उसे मिलने वाले लाभ को रोकने
का प्रयास किया जाए.
कई
शूद्र और दलित स्वयं पर हिंदू
होने का ठप्पा स्वीकार कर चुके
हैं लेकिन निरंतर रूप से चल
रहे जातिवादी व्यवहार उन्हें
बार-बार
निराशा की स्थिति में धकेल
देता है.
ऐसी
हालत में वे अपना परंपरागत
धर्म छोड़ कर मुस्लिम बने
दलितों के दायरे में स्वयं को सुरक्षित
महसूस करते हैं.
ब्राह्मणों
से धर्मांतरित सैयद,
शेख़
और अन्य अगड़े मुस्लिम आज भी
अंबेडकर को कोसते हैं कि उन्होंने बौध धर्म अपनाने जैसा निर्णय
क्यों लिया और इस्लाम क्यों
नहीं अपनाया.
दलितों
की हालत पर कांग्रेस और बीजेपी
का रवैया अलग नहीं है. आरक्षण
विरोधी यह हमला करना नहीं
भूलते के क्या दलित अपना या
अपने परिवार का इलाज आरक्षण
का लाभ उठा कर बने (घटिया)
डॉक्टर
से कराना चाहेंगे?
सरकारी
अस्पतालों में बहुत से दलित
वर्षों से कार्यरत हैं.
लोग
उनसे इलाज कराते हैं.
वे
न जानते हैं न पूछते हैं कि डॉक्टर
की जाति क्या है.
इलाज
करा कर घर चले जाते हैं.
बहुत
से दलितों के अपने क्लीनिक
हैं.
वे
सफल प्रैक्टिस कर रहे हैं और
समाज सेवा में संलग्न हैं.
काश,
आरक्षण
विरोधी लोग (जनरल वाले) डॉक्टरों
से पूछते कि आपके नाम के साथ
शर्मा लगा है,
आप किसी प्रकार के आरक्षण से तो नहीं आए या फिर कम
अंकों के कारण आपने डोनेशन
दे कर मेडिकल की सीट तो नहीं
खरीदी थी?
चिकित्सा
के क्षेत्र में अकूत सरकारी
और गैर-सरकारी
धन आता है.
आरक्षण
विरोध का एक कारण वह धन भी है.
यहाँ
भी वही कोशिश है कि कहीं पैसे
का प्रवाह दलितों की ओर न
जाए. आरक्षण
का लाभ उठा कर अच्छी आर्थिक
हालत में आ चुके और अच्छी शिक्षा
ले सकने में सक्षम दलितों से
आरक्षण वापस लेने की बात इस
लिए उठाई जाती है कि दलित अब
मैरिट वाली सीटें लेने लगे
हैं.
मैरिट
के ध्वजाधर सवर्णों को दलितों
का यह मैरिट हज़म नहीं होता.
बेहतर
होगा पहले इन दलितों को 'मैरिट
समूह'
में
स्वीकार किया जाए.
ऐसा
करने से देश के मानव संसाधनों
के बेहतर प्रयोग का मार्ग
बनेगा.
वैसे मानव
संसाधनों को बरबाद करने में
हमारा रिकार्ड बहुत ख़तरनाक है.
सवर्ण
मानसिकता वाले वकालत करते
हैं कि आरक्षण का लाभ पढ़े-लिखे
मैरिट वाले दलितों के लिए
समाप्त करके उन दलितों को दिया
जाए जो अभी ग़रीब हैं (जो
अच्छी शिक्षा के मँहगा होने
के कारण कंपीट करने की हालत
में नहीं आए).
वास्तविकता
यह है कि सस्ते स्कूलों में
पढ़ कर आए ग़रीबों के लिए
आरक्षित सीटों को यह कह कर
अनारक्षित करना बहुत आसान हो
जाता है कि 'योग्य
उम्मीदवार नहीं मिले'.
इसका
लाभ किसे होता है,
विचार
करें.
इस
मामले का रेखांकित बिंदु
शिक्षा का है और दलितों तक
पहुँच रही शिक्षा का हाल आप
सभी जानते हैं.
ग़रीबी
और महँगी शिक्षा में दोस्ती
कैसे हो?
यह
तो सरकारी नौकरियों की बात
है.
इसके
आगे का मुद्दा तो निजी क्षेत्र
में आरक्षण का है जिसमें रोज़गार
की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं.
तैयारी
वहाँ की करनी चाहिए.
आरक्षण
पढ़ाई-लिखाई
में ध्यान न देने वाले
सिर्फ-और-सिर्फ
उन सवर्णों के लिए समस्या है,
जो
51
परसेंट
ओपन कटेगरी में कंपीट नहीं
कर पाते और फेल हो जाते हैं.
फेल
होने का कारण वे खुद के अंदर
नहीं ढूंढते और दूसरों को दोष
देते हैं.
इसलिए
जब आरक्षण विरोधियों से बहस
हो तो सहानुभूतिपूर्वक इस
बात का ध्यान रखें कि आपका
सामना किसी कम पढ़े-लिखे
शख्स से है.
उसने
संविधान नहीं पढ़ा होगा.
उसे
इतिहास का कोई ज्ञान नहीं
होगा.
उसे
समाजशास्त्र के बारे में कुछ
भी पता नहीं होगा.
कानून
के बारे में उसकी जानकारी
शून्य होगी.
आप
आज़माकर देख लीजिए.
दिलीप मंडल की वॉल से
मैं
यह नहीं कहता कि उनमें मेरिट
नहीं है.
मेरे
ख्याल से वे पढ़ने-लिखने
में मन नहीं लगाते हैं.
मन
लगाकर पढ़ेंगे,
तो
पक्का पास हो जाएंगे.
फिर
किसी को कोसने की जरूरत नहीं
रहेगी.
इसलिए
जब आरक्षण विरोधियों से बहस
हो तो सहानुभूतिपूर्वक इस
बात का ध्यान रखें कि आपका
सामना किसी कम पढ़े-लिखे
शख्स से है.
उसने
संविधान नहीं पढ़ा होगा.
उसे
इतिहास का कोई ज्ञान नहीं
होगा.
उसे
समाजशास्त्र के बारे में कुछ
भी पता नहीं होगा.
उसने
मनुस्मृति भी नहीं पढ़ी होगी.
गारंटी
से बोल रहा हूं.
वह
पढ़ने वाला आदमी होगा ही नहीं.
आरक्षण
से प्रॉबलम उसे ही होगी,
जिसका
सलेक्शन नहीं हो पा रहा है.
आरक्षण
विरोधियों से बहस कीजिए.
लेकिन
सहानुभूतिपूर्वक.
इसी
लिए तो मैं दावे के साथ कह रहा
हूं कि आरक्षण विरोधियों को
संविधान और कानून की रत्ती
भर जानकारी नहीं होती है.
पढ़ते
ही नहीं है.
जब
कि मन लगाकर पढ़ना चाहिए.
जो
पास हो जाता है,
वह
रोने के लिए नहीं आता है.
यह
शुद्ध रूप से,
फेल
होने वालों की समस्या है.
रिक्शा
चलाने से कोई SC
कैसे
हो जाएगा?
SC एक
संवैधानिक-लीगल
कटेगरी है.
एक
बात आरक्षण समर्थक और आरक्षण
विरोधी शायद नहीं रेखांकित
करते कि संविधान में शब्द
'आरक्षण
(Reservation)'
नहीं
है बल्कि 'प्रतिनिधित्व
Representation'
है.
लोकतंत्र
में प्रतिनिधित्व के विरुद्ध
बोलने की कोई बात ही नहीं है.
प्रतिनिधित्व
सब के लिए होना चाहिए,
हो
सके तो जनसंख्या के अनुपात
में.
आरक्षण
विरोधी मानसिकता के पीछे सिर्फ
न पढने लिखने वाले लोगों की
असफलता नहीं है,
अधिक
मुखर विरोधी वे लोग हैं जो
पढ-लिख
कर सफल हुए हैं,
लेकिन
वे तत्व समाजिक परिवर्तन से
बौखलाए हुए हैं कि जमाना अब
बहुमत वाला है,
लोकतंत्र
में संख्या बल का जवाब किसी
सवर्णवाद के पास नही है,
न
ही डंडे के बल से किसी को अब
हांकने की इजाजत है तो इस बदलते
सामाजिक और राजनीतिक परिवेश
में टूटते सवर्ण वर्चस्व के
मूल कारण के रूप मे वे आरक्षण
को देख रहे है,
इस
मानसिकता के साथ अब सवर्ण
वर्चस्ववाद अपने लिए नये
हथियार तलाशने की कोशिश में
है.
समाज
की पुरानी बीमारी गैरबराबरी
को हालिया दौर की अंग्रेजी
गुलामी की देन साबित करना एक
नयी दृष्टि में सामने लाने
की जद्दोजहद है.
अभी
यह देखना होगा कि इसके पीछे
तथ्य कहाँ से लाए जाएंगे.
फिर
भी नयी कवायद की शुरूआत हो रही
है,
इसे
देखना आपके लिए भी दिलचस्प
हो सकता है.
Development of Human Resources :(( |
एवरेस्ट पर चढ़ने वाली वाल्मीकि समाज की महिला- ममता सौदा. आईएलएलडी ने उसे सम्मान दिए जाने पर विरोध जताया था. |
निशांत मिश्र - Nishant Mishra ✆ the.mishnish@gmail.com to me
ReplyDeleteनमस्ते भूषण जी,
आपकी लगभग सभी बातों से सहमत हूँ. आपने सरकारी कार्यालयों की जिन बातों का ज़िक्र किया है उनमें से ज्यादातर मैंने अपने कार्यालय में नहीं देखी हैं लेकिन वे सच भी हो सकती हैं अतः उनपर कोई विवाद नहीं है.
मेरा मानना है कि जाति-प्रथा के समूल विनाश हुए बिना इस समस्या का समाधान नहीं दीखता, लेकिन यह कैसे होगा यह बताना कठिन है. भारत में अगड़े और पिछड़े का मसला किसी-न-किसी रूप में हमेशा बना रहेगा इसलिए आरक्षण को निर्धारित समयसीमा तक जारी रखा जाए और इसमें नागरिकों की आर्थिक स्थिति को भी सम्मिलित किया जाए.
जातिप्रथा एक कलिष्ट मानसिक बंधन है जिससे पार पाना बहुत कठिन है. आरक्षण की समय सीमा और आर्थिक आधार के संबंध में कई स्तरों पर विचार चलता रहता है.
Deleteनिशांत जी की बात से सहमत होते हुए जोड़ना चाहुंगा कि………
ReplyDeleteमैं समझता हूँ इस उस मूल विकृति को अधिकांश दूर किया गया है, और दूरियाँ भी काफी कम हुई है। जो अवशेष शेष है वे संदेह की प्रतिक्रियाएं है दलित समझते है सवर्णों में श्रेष्ठता का अभिमान अभी भी बाकी है और सवर्ण समझते है दलित हजारों साल के अपमान का प्रतिशोध लेते रहेंगे। यही संदेह सम्बंधो को सामान्य नहीं होने दे रहा।
आज की राजनीति ने आपसी विश्वास के सुदढ़ होने को और भी कठिन कर दिया है. आपका यह बिंदु मेरे विचार से बहुत ही महत्वपूर्ण है.
Deleteआज वो नौकरियां बची ही कितनी हैं जहां तरक्की का झुनझुना देने की क़वायद की जा रही है
ReplyDeleteसही है काजल कुमार जी. अब कवायद एक झुनझुने पर ही हो रही है.
Deleteसार्थकता लिए सटीक प्रस्तुति ... आभार आपका इस उत्कृष्ट पोस्ट के लिए
ReplyDeleteओलम्पिक खेलों में भी आरक्षण कर दिया जाय जिससे हालात कुछ बेहतर हो सकें:-)
ReplyDeleteमैं नहीं समझता कि देश का कोई नागरिक आपकी बात को सहज रह कर ग्रहण पाएगा. जहाँ तक खेलों का सवाल है कभी नॉर्थ-ईस्ट की जनजातियों के नौजवानों को क्रिकेट में तेज़ गेंदबाज़ी के लिए तैयार करने की परियोजना बनाने की बात उठी थी क्योंकि उनकी शरीर रचना में काफी लचीलापन है जो मदद करता है. उस परियोजना का क्या हुआ? कई सौ वर्ष से गुजरात में बसे अफ्रीकी मूल के लोगों, जो अब भारतीय नागरिक हैं, में से बच्चों और युवाओं को एथलेटिक्स आदि के प्रशिक्षित करने की परियोजना बनी थी जिसे सरकारी टीवी पर भी प्रचारित किया गया था. उसका क्या हुआ? अमेरिका अपने अफ्रीकी मूल के नागरिकों को काबिल खिलाड़ी बनाता है और उसकी खेलों में धाक है. कितने दलित खिलाड़ियों को डोपिंग समेत कई तरह के झूठे मामलों में फँसा कर प्रतियोगिताओं से बाहर किया गया यह शोध का विषय हो सकता है. संभव है इसके आँकड़े भी कोई ईमानदार शोधार्थी सामने लाए.
Deleteभारत जी, आपका बहुत शुक्रिया...। आपने जो बताया, वह तथ्य है। लेकिन दुराग्रहों का कोई इलाज नहीं। आपने सही कहा कि देश का कोई नागरिक अरविंद मिश्र की बात को सहज रह कर कैसे ग्रहण कर पाएगा। हाल ही में ओलंपिक के बाद इंटरनेट पर ही कहीं पढ़ रहा था कि अमेरिका सहित कई देशों में गरीब और आदिवासी मूल के लोगों की क्षमता की पहचान कर ज्यादातर मुश्किल खेलों के लिए उनके बीच से ही बच्चों को चुना जाता है और उन्हें तैयार किया जाता है। उनका रिकार्ड सामने है... और हमारे प्यारे भारत का भी। लेकिन हमारे यहां अगर विज्ञान का झंडा उठाने वाले लोग भी इस तरह की कवायदों को लेकर खिल्ली उड़ाने का भाव रखते हैं। वैसे कुछ साल पहले गाजियाबाद की एक खबर पढ़ी थी जिसमें एक वृद्ध महिला को तांत्रिक के आदेश के बाद उसके तीन बेटों ने चप्पलों से पीट-पीट कर मार डाला था। उन तीनों में एक ने डॉक्टरी और एक ने इंजीनियरी की पढ़ाई की थी। बहरहाल...
DeleteArwind ji, शायद आपको याद हो उड़ीसा का क्रासकंट्री दौड़ लगाने वाला बच्चा. नाम था बुधिया. दलित था. उसके कोच की हत्या कर दी गई थी. इसलिए नहीं कि इस खेल में बच्चे की जान जा सकती थी. बल्कि इसलिए कि उसने उसे कोचिंग दी थी.
Deletethe points u mentioned here are valid and prevail..
ReplyDeleteintention with which "reservation" was implemented was novel, good and welfare related..
but somewhere the kind of "reservation" we have lacks in quality..
मैं आपकी बात से सहमत हूँ ज्योति.
Deleteआदरणीय भूषण जी आपकी टिप्पणिया तर्कसंगत और वाजिब हैं। हकीकत ऐसी ही है। वस्तुतः 'हिन्दू' शब्द फारसियों का एक गंदी और भद्दी गाली के रूप मे दिया हुआ है। उससे पूर्व बौद्धों ने 'हिंसा देने'(उनके मठों,विहारों,ग्रन्थों को जलाने के कारण)ब्रह्मंवाड़ियों को 'हिन्दू' कहा था। 'वेदोक्त' शब्द नहीं है हिन्दू और न ही हिन्दू आर्य=श्रेष्ठ होते हैं।
ReplyDeleteव्यापारियों और शासकों ने मिल कर दूसरे लोगों का आर्थिक,मानसिक,सामाजिक,राजनीतिक शोषण करने हेतु 'कर्मगत' वर्ण-व्यवस्था को 'जन्मगत जाति-व्यवस्था' मे बदल कर समाज मे खाई पैदा की है। इसी खाई को पाटने के प्रयास मे संविधान ने आरक्षण व्यवस्था लागू की थी। लागू करने वालों ने उसे भोथरा कर दिया है। डॉ बलराज माधोक के अनुसार 'जनसंघ'(जो अब भाजपा है)कांग्रेस की 'B' टीम है। सच मे दोनों की नीतीया फूटपरस्त और एक सी ही हैं।
'हृदय' का कार्य शरीर के कमजोर अंगों को अधिक 'रक्त प्रवाह' देने का होता है। शासन का कार्य भी वैसा ही होना चाहिए जो है नहीं। चिलल पों करने वाले शोषक-उत्पीड़क वर्ग से संबन्धित लोग हैं जो आरक्षण का विरोध कर रहे हैं।
आदरणीय माथुर साहब, आपकी सारगर्भित टिप्पणी के लिए आभार. मैंने 1979-80 में डॉ. बलराज मधोक के भाषण सुने थे. वे धीरे-धीरे राजनीतिक परिदृष्य से गायब ही हो गए.
Deleteमेरी राय में तो आरक्षण का आधार केवल आर्थिक स्थिति होना चाहिए।
ReplyDeleteबाकी हिन्दुस्तान में बहुत से काम वोट बैंक देखकर किए जाते हैं। एक उत्कृट पोस्ट के लिए बधाई
आपकी बात व्यावहारिक है. आभार.
Deleteसंजय भास्कर ✆ to me
ReplyDeleteकाजल कुमार जी ने सही कहा है नौकरी बची ही कितनी है
Amrita Tanmay ✆ to me
ReplyDeleteअभी ही समाचार पढ़ कर आहत होकर आई हूँ..चलती ट्रेन से तेरह लोगों को फेंका..ये सब क्या है ? असामनता का प्रतिशोध ही न..बड़ी मछली छोटी मछली को देखना भी पसंद नहीं करती ..सब जगह यही कानून है..
सुज्ञ जी की बात से सहमत हूँ विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमत भूलो रचनाकार प्रथम
ReplyDeleteश्री रामचरित रामायण के
थे महापुरुष श्री बाल्मीकि
ऋषि,ज्ञानमूर्ति,रामायण के
हो शूद्र कुलोदभव फिर भी जगजननी को पुत्री सा समझा
उनके वंशज अपमानित कर, क्यों लोग मनाते दीवाली ?
http://satish-saxena.blogspot.in/2008/06/blog-post_3289.html
आरक्षण का विरोध करने
ReplyDeleteवालो कुछ सहकर तो देखो
सदियों की पीड़ा बिना सहे
अहसास नही हो पाती है
कितने प्यासों ने जाने दी थीं,तड़प तड़प कर बिन पानी ,
पीने का पानी वर्जित कर , क्यों लोग मनाते दीवाली !
http://satish-saxena.blogspot.in/2008/06/blog-post_11.html
सदियों का खोया स्वाभिमान
ReplyDeleteवापस दिलवाना है इनको ,
जो बोया बीज पूर्वजों ने
बच्चों ! उसको कटवाना है,
ठुकराए गए भाइयों का , अधिकार दिलाने आ आगे ,
अधिकार किसी का छीन अरे , क्यों लोग मनाते दीवाली?
http://satish-saxena.blogspot.in/2008/06/blog-post_15.html
बच्चों मानवकुल ने अपने
ReplyDeleteकुछ लोग निकाले घर से हैं
बस्ती के बाहर ! जंगल में
कुछ और लोग भी रहते हैं
निर्बल भाई को बहुमत से घर बाहर फेका है हमने
आचरण बालि के जैसा कर क्यों लोग मनाते दीवाली?
घर के आँगन में लगे हुए
कुछ वृक्ष बबूल देखते हो
हाथो उपजाए पूर्वजों ने ,
इनमे फलफूल का नाम नहीं
काटो बिन मायामोह लिए, इन काँटों से दुःख पाओगे
घर में जहरीले वृक्ष लिए क्यों लोग मनाते दीवाली ?
@ आदरणीय सतीश सक्सेना जी, आपकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति इस समस्या के सांस्कृतिक पक्ष को भी प्रभावी ढंग से छूती है. आपका हार्दिक आभार.
ReplyDeleteबात नौकरियों की नहीं है ... समाज में ऐसे प्रकल्प चलने चाहियें जो इस वैमनस्य को दूर कर सकें ... आर्थिक सहायता देनी चाहिए ... उनके लिए विशेष प्रबंध होने चाहियें ... आएर्थिक पॅकेज होने चाहियें इस असमानता को दूर करने के लिए ... वो कार्य जो घृणित हैं उनका मेकेनिकल सलुशन निकलना चाहिए ...
ReplyDeleteदिगंबर नासवा जी, आपके कमेंट में लगभग सभी कुछ आ गया है. एक ही दिक्कत है कि देश में शिक्षा का स्तर एक-सा न होने और महँगी होती शिक्षा ने नई कठिनाइयाँ पैदा की हैं. इससे पुनः ग़रीब अधिक प्रभावित हुए हैं.
Deleteनेता राजनीति करण कर रहे है समस्या अभी भी दूर नहीं हुयी है
ReplyDeleteकठिनाइयाँ बहुत हैं अभी..सार्थक आलेख..आभार..
ReplyDeleteजब संविधान बना था तो दलितों को आरक्षण देने का प्राविधान मात्र १० वर्षों के लिए किया गया था, उसके बाद इसे हटा दिया जाना था, लेकिन गन्दी और सस्ती राजनीति करने वाले नेताओं ने इस आरक्षण को अपनी महत्वाकाक्षाओं को पूरा करने की सीढ़ी बना लिया। हिन्दुओं को बाँटने के लिए दलित को लगातार ये एहसास दिलाया की वो शोषित है और उस पर जुल्म हो रहा है । लेकिन अफ़सोस की बात तो ये हैं की दलितों का एक बड़ा तबका जो इस आ
ReplyDeleteरक्षण से लाभान्वित हो चुका है , वो आपस में ही राजनीति कर रहा है और आरक्षण का लाभ अन्य दलितों तक पहुँचने ही नहीं दे रहा और इसका खामियाजा भुगत रहे हैं बहुसंख्यक।
सरकार को किसी की भलाई से कुछ नहीं लेना देना, वो तो बस वोट-बैंक बनाने के लिए एक को लाभ देगी और एक का खून पीयेगी। सोचना तो आपको स्वयं ही होगा।
इज्ज़त के साथ जीना है तो आरक्षण का विरोध करो।
.
यह सही है कि आरक्षण स्थाई समाधान नहीं है. यह हिंदुओं को बाँटने का औज़ार भी नहीं है अलबत्ता बँटे हुए भारतीय समाज में सदियों की ग़ुलामी झेल चुके ग़रीबों के लिए एक अस्थाई राहत मात्र है. राजनीतिक दल दलितों को अत्याचार और शोषण का शिकार कहें या न कहें, दलितों पर अत्याचार और उनके शोषण के समाचार आप प्रतिदिन पढ़ती होंगी. ये उनकी ‘जाति पहचान’ के कारण है.
Deleteयदि आरक्षण का लाभ ले चुके दलित आरक्षण का लाभ लेना बंद कर दें और वह अन्य दलितों तक पहुँचना शुरू हो जाए तब भी बहुसंख्यक समाज (अर्थ हिंदू से ही है न? आपने प्रकारांतर से दलितों को गैर-हिंदू कहा है जो वास्तविकता ही है) की भाषा आरक्षण और दलितों के प्रति वही रहेगी क्योंकि वहाँ आरक्षण की बात है और दलितों की ओर देश के थोड़े से धन-प्रवाह की बात है जिसे हिंदू बर्दाश्त नहीं करता.
विषय का अनावश्यक विस्तार न हो जाए इसलिए एक उदाहरण के साथ बात समाप्त करता हूँ. जब ऊँची जाति का कोई व्यक्ति ईसाई बनता है तो हंगामा नहीं होता. जैसे ही कोई दलित ईसाई या कुछ और बनता है तो समाचार-पत्र काफी कुछ उसके बारे में छापते हैं. हम जानते हैं कि वह दलित हिंदू नहीं है तो भी इसे ‘हिंदू धर्म से अन्य धर्म में धर्मांतरण’ कहा जाता है. काफी शोर होता है. संभवतः ईसाइयत अपनाने से उन्हें कुछ आर्थिक लाभ होता है और वे हिंदू दायरे से अलग होने के कारण स्वयं को दलितपने (एक प्रकार के अछूतपने) के कलंक से बाहर होने की हालत में आ जाते हैं. वे बौध धर्म अपनाते हैं. उसमें पैसा नहीं मिलता और उनकी सामाजिक स्थिति भी नहीं बदलती.
आप विचार कीजिए कि दलितों की इज़्ज़त आरक्षण को ठुकरा देने में ही है क्या? क्या इससे उनकी जातिगत पहचान मिट जाएगी? क्या गाँवों में बैठे दलितों की स्थिति अचानक बदल जाएगी? उनका शोषण और उन पर होने वाला अत्याचार रुक जाएगा? वे ग़रीब हैं और अच्छी शिक्षा उनके हाथ में पहले भी कभी नहीं रही. उनके हालात कैसे सुधर सकेंगे? वही दलित आरक्षण विरोधी मुहिम का शिकार हो रहे हैं जो कुछ आगे बढ़ पाए हैं. यह मुहिम उनकी प्रगति को लेकर ही है.
अपना विचार फिर से रेखांकित कर रहा हूँ कि आरक्षण समस्या का समाधान नहीं लगता. पदोन्ततियों में आरक्षण अन्याय ही है. यह भी तथ्य है कि पिछले साठ साल में आरक्षित पदों को न भरने या समाप्त करने के प्रयासों में बहुसंख्यकों ने अपनी एकता का परिचय दिया है.
दिव्या जी, मेरा विचार है कि दलितों की वास्तविक स्थिति आपकी नज़र से छिप नहीं सकती.
उम्मीद है, दिव्या जी कम से कम अब समझेंगी...
Deleteशेष जी , मेरी बात तो आपको समझ आई नहीं , फिर आगे लिखने से कोई फायदा है नहीं ! भूषन जी ने जिस उद्देश्य से यह पोस्ट यहाँ लगायी है वह सिद्ध हो रहा है ! दलित को मैं अपने से अलग नहीं मानती ! वे जबरदस्ती खुद को अलग करते हैं फिर खुद पर हो रहे अत्याचार का रोना रोकर सहानुभूति बटोरते हैं , जो बेहद शर्मनाक लगता है! जो सवर्णों पर अत्याचार हो रहा है , काबिलियत को पहचाना नहीं जा रहा! डॉक्टर इंजिनियर घटिया QUALITY के पैदा हो रहे हैं. देश गर्त में जा रहा हैं. विश्व स्तर पर हम अपनी पहचान खो रहे हैं! प्रतिभाएं पलायन कर रही हैं ! ये सब बर्बादी, आरक्षण के ही कारण हो रही है ! हम पुरजोर विरोध करते हैं आरक्षण नाम की इस घटिया मानसिकता KA ! हम सभी भारतीय हैं, फिर अल्पसंख्यकों , महिलाओं , दलितों आदि के नाम पर भीख क्यों मांगें ? देश को खंडित कर टुकड़ों में बाटने वालों को मैं देशद्रोही समझती हूँ. --जय हिंद !--वन्दे मातरम् !
Delete@ दिव्या जी, मैंने आपके यहाँ से जानकारी ली थी और जो मेरे पास जानकारी थी वह यहाँ शेयर की है और आपके यहाँ उपलब्ध जानकारी को इस पोस्ट में लिंक किया है. मुद्दे पर सहमति-असहमति हो सकती है. वह किसी को अच्छी-बुरी लग सकती है. किसी से सहानुभूति बटोरने का कोई प्रश्न नहीं.
Deleteआपकी शेष टिप्पणी के संदर्भ में इतना ही कहूँगा कि समस्या को दलितों के नज़रिए से भी समझने की कोशिश करें.
Delete"वे जबरदस्ती खुद को अलग करते हैं फिर खुद पर हो रहे अत्याचार का रोना रोकर सहानुभूति बटोरते हैं , जो बेहद शर्मनाक लगता है!"
Deleteदिव्या जी, यह पंक्ति आपकी है। और अब समझना चाहिए कि आप भारत जी की बातों और इस समस्या को कितना समझ सकती हैं... !
Mr Shesh , I don't believe in hostile discussion , so kindly spare me. I have already written my views on reservation (be it minority, Dalit or women), so there is no point arguing unnecessarily and provoking me.
DeleteThere is no compulsion to agree with my views and also one should not try to impose his opinion on me.
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I have already lost a well wisher just because of this post, so I am least interested in writing anything here. Hope the commenters will understand my constraint and will refrain from addressing and humiliating me.
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शेष जी, अनुरोध है कि अब अधिक न लिखें. इस विषय के विस्तार की कोई सीमा नहीं है.
Deleteदिव्या जी, आपने इस पोस्ट या टिप्पणियों के कारण कोई शुभचिंतक नहीं खोया है. व्यस्त हूँ, थोड़ा-सा समय ले रहा हूँ.
भारत जी को अनुरोध करने की जरूरत नहीं थी। इसके बावजूद मेरी यह अंतिम टिप्पणी है। मैं समझता हूं, कि यह मेरे लिए जरूरी था।
Deleteदिलचस्प है...
अगर मैं किसी बहस में अपनी राय से असहमति या अपनी किसी बात के जवाब से खुद अपमानित महसूस करता हूं और जवाब देने वाले को अपना शत्रु मान लेता हूं तो मुझे बहस में हिस्सा ही नहीं लेना चाहिए। किसी भी बहस में कोई किसी पर खुद को थोपता नहीं है, बस अपने विचारों को खोलता है, विषय पर बात करता है। सहमति-असहमति अपनी जगह है।
कोई भी विषय हम उठाते हैं और उस पर लोगों को अपनी राय जाहिर करने का अधिकार देते हैं (खुला कमेंट बॉक्स) तो उसे पढ़ने वाला शख्स राय जाहिर करेगा ही।
मुझे लगता है मैं यहां गलत आ गया था। किसी को अपना शुभचिंतक खोने की जरूरत नहीं है।
भारत भूषण जी से माफी...
बाऊ जी,
ReplyDeleteनमस्ते!
कुछ साल पहले तक मैं दिव्या जी के सुर में गाया करता था. और ये आपकी साफगोई है के एक प्रतिशत ही सही आप सहमत हैं उनसे.
आज थोड़ा फर्क है. दरअसल, हम 'सवर्णों' को 'दलितों' की पीड़ा का अहसास हो ही नहीं सकता. क्यूँ? क्यूंकि, जाके पैर ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई!?
मैं जातिवाद में नहीं मानता. क्यूंकि मुझे राजनीति थोड़ी करनी है! मेरे लिए तो आप बाऊ जी ही थे, हैं और रहेंगे! इंसान-इंसान में भेद चाहे फिर वो धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर हो शर्मनाक है. पर ऐसे कितने लोग हैं? और धृष्टता क्षमा हो, आप जैसे भी कितने लोग हैं जो विरोधी स्वर में भी सहमति की तलाश करेंगे?!
अम्बेडकर की एक बायोग्राफी (धनञ्जय कीर द्वारा) को पढ़ा है मैंने. वो कहते थे के हिन्दू समाज एक मीनार जैसा है, जिसमे ऊपर-नीचे जाने के लिए सीढ़ियाँ मौजूद नहीं हैं! शायद आरक्षण उसी सीढ़ी का नाम था.
अब अगर आज इसकी प्रासंगिकता की बात करूं तो मैं तो यही मानता हूँ के असल हकदारों को लाभ कम है वोट-लोभियों को अधिक. शायद आप मुझसे सहमत होंगे की आज दलितों में भी एक सभ्रांत 'सवर्ण' वर्ग है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण का लाभ ले रहा है. क्युंकी उसके पास धन है, साधन है, सुविधा है! और जो वंचित है......... वो तो वंचित ही है!
शायद आजादी के समय इतने साधन नहीं थे... लेकिन आज कम से कम ये तो किया ही जा सकता है/ किया जाना चाहिए:
१. बेहतरीन स्कूल और उम्दा टीचर जो बुनियादी शिक्षा का एक मजबूत खाका तैयार कर सकें, ताकि कोई केवल वोट बैंक ना बनकर रह जाए!
२. वंचित वर्ग, फिर चाहे वो कोई भी हो, बस हिन्दुस्तानी हो..... को तैयार किया जाए के वो अपने पैरों पर खड़े हो सकें!
३. आरक्षण का लाभ पा चुके और 'सीढ़ी' चढ़ चुके लोगों को कहा जाए: अब दूसरे भाइयों को मौका दो.
४. प्रोन्नति में आरक्षण नहीं होना चाहिए मेरे हिसाब से!
पढ़ी-लिखी सीरियस बातें करने से मेरे दिमाग पर अनावश्यक ज़ोर पड़ता है... मेरी ट्रेडमार्क वाहियात बातें आपकी बाट जोह रही हैं! ਅਖਿਯਾਂ ਉਡੀਕ ਦਿਯਾਂ...
जय भारत! जय भीम!
ढ़पोरशंख
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द टूरिस्ट!!!
आशीष जी, आपके आने से एक ताज़ा हवा चली है यहाँ.
Deleteआपके टिप्पणी लिखने के दौरान मैं आज (23-08-2012) का अखबार पढ़ रहा था और उसमें छपी एक ख़बर को ऊपर आलेख में शामिल कर दिया है. यह अपनी कहानी आप कहता है.
1. आपके बिंदु 1 पर मेरे विचार से कोई कार्रवाई होने के आसार दूर तक नहीं हैं.
2. ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है इसका मुझे विश्वास है.
3. मैं कई ऐसे दलितों को जानता हूँ जो अब जनरल में कंपीट कर के आगे आ रहे हैं. ऐसे दलित संगठन उभर रहे हैं जो कह रहे हैं कि आरक्षण एक ड्रामा है. सरकार इसे खत्म करे तो वे संगठित हो कर अपने हक़ के लिए संघर्ष करें. परंतु सरकार इसे समाप्त नहीं करेगी. इसका कारण दलित भी जानते हैं.
4. आपसे शतप्रतिशत सहमत हूँ.
आपकी उपरोक्त टिप्पणी में आपकी 'ट्रेडमार्क वाहियात बातें' सोह रही हैं :)) अच्छा लगा. तीन दिन से आपकी पोस्ट का टैब खोल कर बैठा हूँ. अक्खियाँ जादा न उडीकणगियाँ. आप्पाँ आ रहे आँ.
डॉ. जेन्नी शबनम ✆ to me
ReplyDeleteआरक्षण उनके लिए है जो कमजोर हैं. बस यहीं पर आकार सबसे बड़ी ज़द्दोजहद शुरू होती है. आखिर दलित और कमजोर कौन? आधार क्या? महज जाति या आर्थिक स्थिति? मूल समस्या तो आर्थिक है, और आरक्षण का आधार भी सिर्फ और सिर्फ आर्थिक होना चाहिए. किसी भी जाति-धर्म के हों उससे कार्यक्षमता में कोई फर्क नहीं पड़ता. समान शिक्षा और समान अवसर मिलना चाहिए फिर किसी आरक्षण की ज़रूरत ही न हो. हमारे संविधान ने हमें जाति और धर्म के आधार पर बाँट दिया और रहा सहा आरक्षण ने. सवर्ण जाति का आदमी अगर गरीब हो तो वो भूखे मरे, लेकिन अगर आरक्षित श्रेणी का अमीर भी हो तो उसे सभी सुविधाएँ. ये कैसा इन्साफ? आरक्षित श्रेणी का अगर कोई व्यक्ति अपने बलबूते उच्च पद पर जाता है फिर भी हमारे मन में उसकी काबिलियत पर शक होता है. आरक्षण का आधार जाति और धर्म होना ही गलत है.
आपका आभार. आर्थिक आधार की बात काफी देर से हो रही है और प्रथम द्रष्टया इसमें दम नज़र आता है. सामाजिक दृष्टि से आशंका रहेगी कि क्या उस योजना के तहत इन दलित तबकों तक लाभ पहुँचने दिया जाएगा? शायद आपकी जानकारी में हो कि दलितों के लिए बनाई गई योजनाओं का कार्यान्वयन लगभग नहीं के बराबर होता है. ये योजनाएँ सबसे अधिक भ्रष्टाचार की शिकार हैं.
Delete.
ReplyDelete@--अंतर इतना ही है कि वे तीखी बात करने से परहेज़ नहीं करतीं ..
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मस्तिष्क में आये विचारों को यथावत लिखती हूँ। लेकिन ये मेरा दुर्भाग्य ही है की लोगों को 'तीखी' लगती हूँ।
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आपकी तीखी बात में हमारा सौभाग्य भी तो देखिए न डॉक्टर साहब. आपके इस स्वभाव को मैं काफी पहले से जानता हूँ और इसी लिए आपको पढ़ता भी हूँ.
Deleteभूषन जी , जब मुद्दे पर विमर्श हो रहा था तो मुझे "तीखा" कहकर मुझपर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं लगाना चाहिए था आपको. आपसे ये उम्मीद नहीं थी.
Deleteक्योंकि आपने व्यक्तिगत रूप से ऐसी उक्ति को सही नहीं माना है अतः मैंने उस सारे वाक्य को हटा दिया है.
Deleteआज जब आर्थिक आधार पर बल दिया जाता है तो इस बात को छुपा कर कि तब एक तबके को शिक्षा से वंचित किया गया था ,यदि एक वाक्य भी वेद का उसमे से किसी ने सुन लिया तो उसके बहरा करने का उपक्रम किया जाता था और जो तबका शिक्षा के क्षेत्र मे सदियों और पीढ़ियों से पिछण चुका है क्या वह आर्थिक रूप से समृद्ध दिखाई दे रहा है?
ReplyDeleteपिछली सपा सरकार मे 'कन्या विदद्य धन' लेने वालों मे समृद्ध सिन्धी दूकानदारों की पुत्रियाँ भी शामिल थीं इन परिस्थितियों मे आर्थिक रूप से कमजोर तबका कोई लाभ नहीं ले पता है और समृद्ध तबका ही मज़े करता है। केवल एक ही समाधान है कि जैसे एक जज साहब के बच्चो को आरक्षण मिला वे बड़े अधिकारी हो गए अब उनके बच्चे भी आरक्षण का लाभ लेंगे इसे थामा जाये और आरक्षित वर्ग के समृद्ध लोगों को आरक्षण से बाहर करते रहें तो स्वतः ही आरक्षण समाप्त हो जाएगा।
Sandeep Kāla via Face Book 10:56pm Aug 29
ReplyDeleteGround facts put up by you, but biased mind sets will always find their own reasons to ignore the ground realities .