"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


19 June 2017

The Profession and Religion - व्यवसाय और धर्म


इस पोस्ट का पॉडकास्ट यहाँ है.

किसी व्यक्ति की पहचान उसके पेशे से भी होती है. उसका पेशा बदल जाए तो भी कई बार उसकी पेशे पर आधारित पहचान नहीं बदलती. ऐसा इसलिए है कि हमारे समाज में पेशे को धर्म की तरह माना जाता है और धर्म नहीं बदलता (?). क्या वाक़ई?

कुछ भी कहिए अब यह विचार एक गलतफ़हमी का रूप लेने लगा है. संविधान बदला है, सरकारी नीतियाँ बदली हैं. लोगों के पेशे और धर्म भी बदले हैं. फिर इन दिनों एक बात लोगों में पहुँच गई है कि यदि पेशा एक धर्म है तो धर्म भी एक पेशा है. इससे सामाजिक सोच बदलती नज़र आ रही है.

भाईजान, पेशा खतरे में हो तो इंसान का वजूद तक ख़तरे में पड़ जाता है. लेकिन जब सरकारी नीतियाँ समाज के करोड़ों की जनसंख्या वाले वर्ग के पेशे को ख़तरे में डाल दें तो समाज में एक बैचैनी तो पनपेगी. पहले जुलाहों के पेशे को अंग्रेज़ सरकार की आर्थिक नीतियों ने तबाह किया जिसका मार्मिक वर्णन शशि थरूर ने अपनी पुस्तक ‘An Era of Darkness’ के संदर्भ में यह खुल कर किया है. थरूर ने बताया है कि किस तरह बुनकरों के अंगूठे ही काट डाले गए ताकि वे अपने पेशे में वापस न जा सकें. स्वतंत्र भारत में अंग्रेज़ों की औद्योगिक नीति जारी रही. नतीजा यह हुआ कि बुनकर जातियाँ के उत्पाद कारख़ानों में बने उत्पादों से होड़ नहीं कर सके. ग्रामीण जुलाहे टेरीलीन के रेशे की माँग करते रहे जो पूरी नहीं हुई. आज की स्थिति नहीं मालूम.

इधर मेघ भगतों की खड्डियाँ पूरी तरह तो नहीं रुकीं लेकिन डूबते हुए पेशे का दबाव उनकी ज़िंदगी के रेशे-रेशे पर भारी पड़ा. वैसे तो श्रमिक जातियाँ स्वभाविक ही एक जगह से उखड़ जाती हैं तो तुरत दूसरा पेशा अपना लेती हैं. जुलाहों ने जुलाहागीरी छोड़ी तो खेत मज़दूर बन गए, खेती का मौसम न हुआ तो ईंटें ढोने लगे, थोड़ा बहुत प्रशिक्षण लिया है तो कारख़ानों में कारीगर बन गए या वहीं सामान ढोने लगे. दुनिया भर का लेबर क्लास यही करती है.

मेघों ने जब-जब ‘मेघ-धर्म’ यानि पेशा बदला तब उन्होंने तरक्की के नए रास्ते ढूँढने में तत्परता दिखाई है. जम्मू से स्यालकोट आए तो उन्होंने कारख़ानों में कारीगरों के रूप में अपनी पहचान बनाई. नियमित आय आनी शुरू हुई तो तुरत अपने बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने ध्यान दिया. भारत विभाजन के बाद मेघों ने अमृतसर, जालंधर, लुधियाना, मेरठ जैसे शहरों में पेशेवर कुशलता के साथ सर्जीकल और स्पोर्ट्स उद्योग में अपनी जगह बनाई. शिक्षित मेघ युवा अच्छी संख्या में बैंक, बीमा, चिकित्सा, प्रशासनिक सेवाओं में गए और अपनी प्रोफेशनल श्रेष्ठता साबित की. पिछले कई वर्षों से वे व्यापार के क्षेत्र में आ रहे हैं. उन्होंने अपने नए पेशे को धर्म की तरह अपनाया है. उनका व्यापार के क्षेत्र में आना महत्वपूर्ण है.


नई अर्थव्यवस्था की बेवकूफियों और सरकारी नीतियों के कारण लोगों को बच्चों की शिक्षा पर अब बहुत ज़्यादा ख़र्चा करना पड़ेगा. ग़रीब समुदायों के लिए यह और भारी होगा. वैश्वीकरण (ग्लोबलाइज़ेशन) और शिक्षा के निजीकरण को आप ‘दो नागों’ का दोहरा हमला कह सकते हैं. अर्थव्यवस्था का तकाज़ा है कि उद्योग के लिए सस्ते मज़दूर चाहिएँ और सरकारी नीतियों की ड्यूटी है कि उस माँग को पूरा करें. अच्छे जीवन स्तर के लिए सस्ते मज़दूरों को शिक्षित-प्रशिक्षित और महँगे मज़दूरों से मुकाबला करना ही होगा. जो जीतेगा वही धरती पर जीवन का सुख भोगेगा.

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