इंसानी स्वभाव है कि वो जब चीज़ों का अध्ययन करता है तो
सहूलियत के लिए उसे हिस्सों में बांट लेता है. जातियों के विभाजन के मुख्य आधार कई
हैं जैसे नाम, रूप, रंग, व्यसाय और उससे जुड़ी वस्तुएँ, ध्वनियाँ, भौगोलिक स्थिति, आसपास
उपलब्ध चीज़ें, जीव, पेड़, नदी, पहाड़, सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक आंदोलन, या नाम देने वाले का मनोभाव. अपने कबीले और अन्य मानव समूहों की पहचान के लिए अमूमन इन्हीं आधारों पर उनके अलग-अलग नाम रख लिए जाते
हैं.
आर.एल. गोत्रा जी ने मेघों के विभिन्न नामों या उनके अन्य
प्रचलित नामों की सूची अपने आलेख Meghs of India में दी थी
जिसमें ये नाम शामिल किए गए थे:- मद्र, मेघ, मेद, मेदे, भगत, जुलाहा, कबीरपंथी, कसबी, मेध, मेधो, मेगल, मेगला, मींह्ग, मेन, मेंग, मेंह्गवाल, मेथा, मेघोवाल, पंगवाल, पाओली, भाकरी
आदि. ये नाम मेघों के साथ किसी न किसी रूप में जुड़े हैं. इतने अलग नामों की
पृष्ठभूमि में भौगोलिक, धार्मिक, भाषा-बोली आदि कारण स्पष्ट देखे जा सकते हैं.
डॉ. नवल वियोगी, ताराराम जी
और आर.एल गोत्रा जी के दिए संदर्भों के साथ पिछले आलेख मेघ और नाग वंश में चर्चा की गई थी कि प्राचीन काल से ही नाग वंश के अतर्गत
आने वाली जातियों और उनके नाम-उपनाम आदि में भेद होता रहा है. एक सूत्र ‘मेघ’ और ‘अहि (नाग) मेघ’ शब्द में है. दूसरा सूत्र है महार, मदर (मद्र अथवा मेघों का अन्य नाम), महरा, सलोतरी
(साल्व गोत्री जिनका संबंध मद्रों से था) और तक्षक या टाक जनजातियों से जन्मी महार, मराठा, कुर्मी आदि
जातियों के साथ-साथ मेघ (कोली). तीसरा
सूत्र है महाभारत में उल्लिखित ‘कुनिंद’ या ‘कुणिंद’.
एक अन्य सूत्र गौतम बुद्ध के वंशवृक्ष के हवाले से मिलता है
जिसका उल्लेख डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ने किया है. वे बताते हैं कि गौतम बुद्ध का
जन्म शाक्य वंश में हुआ. शाक्य यानि सागबेरिया या सागबरिया. बुद्ध का ससुराल कोलिय
वंश में था यानि कोल, कोली, कील, कोरी, कुरी,कीर, कोइरी, किरार, कुर्मी. बुद्ध की पत्नी गोपा यानि गोप, गोआर, ग्वाल, गड़ेरी.
अब इतने सूत्र मिलने के बाद नागवंश को देखें तो सारा भारत
नागमय दिखता है. एक और बात कि इतिहास में पीछे जाएँ तो जातियों की संख्या कम होती
जाती है. यानि समय-समय पर जातियों में से जातियाँ पैदा हुईं और उनकी गिनती बढ़ी.
अंततः हर जाति अपनी अलग पहचान के साथ ख़ुद को देखने की आदी हो गई और ख़ुद से अलग
हुई जाति (अपने टुकड़े) को दूर होते देखती रही, यहाँ तक कि कालांतर में उनकी परस्पर पहचान धुँधली
हो गई, बहुत धुँधली.
जातियों और गोत्रों के पुराने नामों का अध्ययन करें तो तार आपस में जुड़ते नज़र आते हैं. इस पोस्ट का प्रयोजन यह कहना है कि भारत में नागवंश कण-कण में व्याप्त है. वो लगभग सारे भारत में बसी शिव (द्रविड़ संस्कृति के सिवन, Sivan) की उस छवि जैसा है जो पौराणिक हो चुकी है और जिसके गले में नाग स्वयं आभूषण रूप में सुशोभित हैं.
अपना समाज और इससे जुडी बातें इतनी पुरातन हैं की सही खोज ही इस विषय को बाहर ला सकती है की क्यों जाती, गोत्र, नाम, पंथ, वगेरह की शुरुआत हुयी ... अच्छा विषय है ...
ReplyDeleteआपका आभार.
Deleteमहत्वपूर्ण पोस्ट
ReplyDeleteसभ्यता के आरंभिक काल में मनुष्य द्वारा अपने कुटुंब की पहचान दूसरों से पृथक रखने के लिए जंतुओं और वनस्पतियों के नामों को कुलनाम के रूप में अपना लेने की परंपरा रही है जो आज भी अनेक जातियों में प्रचलित है. नागवंश इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वंश अतीत में भारत के अनेक भागों पर शासन करता रहा था .
आपका आभार.
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