मनोरंजन की दुनिया भी बहुत निराली है. बचपन से रामायण-महाभारत की कथाएं सुनते आए हैं. तर्क की दृष्टि से उनमें लिखी बातें असंभव और अंतर्विरोधों से भरी लगती हैं. सोशल मीडिया पर छोटी उम्र के बच्चे उनके बारे में तार्किक बातें करने लगे हैं और ऐसा वे चुटकुलों के माध्यम से कर रहे हैं. इसे आप बच्चों की क्रिएटिव डिवाइस कह सकते हैं.
बचपन में जो फिल्में देखी थीं वो तस्वीर की तरह ज़हन में बसी हैं. वे आज भी सच्चाई सरीखी महसूस होती हैं. जानता हूं कि फिल्में एक तरह का नाटक या स्टेज शो होता है जिसे कैमरे में क़ैद कर लिया जाता है और फिर उन्हें एडिट कर के ऐसे सजाया जाता है कि अलग-अलग फ्रेम इकट्ठे होकर एक चलती कहानी का रूप ले लेते हैं. कहानी और विज़ुअल्ज़ को इतना उदात्त (बड़ा) बनाया जाता है कि दर्शक का भावनात्मक संसार प्रेरित हो कर उसके साथ-साथ आंदोलित होने लगता है. ऐसे अनुभव दिमाग पर छप कर उसका हिस्सा बन जाते हैं और दिमाग़ की मौत तक उसमें रहते हैं. इन्हें हम संस्कार भी कह देते हैं.
जब फिल्में नहीं बनती थीं तब ऐसी कहानियां शब्दों, नाटकों, गीतों के माध्यम से यात्रा करती थीं. कथावाचक (किस्सागो) कह कर या गा कर लोगों को कथाएँ सुनाता था. उसका इम्प्रेशन (संस्कार) पाठक-श्रोता के मन पर बैठता जाता था ठीक वैसा जैसा फिल्म देखने पर होता है. मनोरंजन का बाज़ार आकर्षक होता है जिसकी ओर हम मर्ज़ी से खिंचते हैं. कुछ श्रेय कलाकार को भी जाता है. मँजा हुआ लेखक या कलाकार किसी की मृत्यु के अवसर को जश्न में बदल सकता है. रावण दहन इसका एक उदाहरण है.
एक सिलेबस की किताब में पढ़ा था कि श्रम करने के बाद मजदूरों को मनोरंजन की तलब होती है. वे गाना-बजाना करके अपनी थकान उतारते हैं. क्योंकि दुनिया में मेहनतकशों की संख्या सबसे अधिक है तो मनोरंजन का सबसे बड़ा बाजार वहीं है. बाज़ार के खिलाड़ी इस बात को जानते हैं. इस दृष्टि से जातक कथाएँ, रामायण, महाभारत, पुराण और अन्य विस्तारित साहित्य जैसे गीत-गोविंद या पंचतंत्र आदि, ऐसी रचनाएं हैं जो किसान-कमेरों, कारीगरों, शिल्पियों को लुभाती चली आ रही हैं. सदियों से अशिक्षित समाजों ने उन ग्रंथों, कथाओं को तर्क की दृष्टि से नहीं देखा. वे मनोरंजित और धन्य होते रहे. शिक्षित युवा अब तर्क के नजरिए से भी उस कथा-साहित्य को देखने लगे हैं.
आज रचनात्मकता के इतने साधन उपलब्ध हैं कि चाहे कोई भी मनोरंजन की एक दुनिया बना ले, चाबी दे कर उसे चलने के लिए ज़मीन पर छोड़ दे, वो चलती जाएगी. आप भी बनाइए और देखिए, वो सदियों तक चल सकती है.
बचपन में जो फिल्में देखी थीं वो तस्वीर की तरह ज़हन में बसी हैं. वे आज भी सच्चाई सरीखी महसूस होती हैं. जानता हूं कि फिल्में एक तरह का नाटक या स्टेज शो होता है जिसे कैमरे में क़ैद कर लिया जाता है और फिर उन्हें एडिट कर के ऐसे सजाया जाता है कि अलग-अलग फ्रेम इकट्ठे होकर एक चलती कहानी का रूप ले लेते हैं. कहानी और विज़ुअल्ज़ को इतना उदात्त (बड़ा) बनाया जाता है कि दर्शक का भावनात्मक संसार प्रेरित हो कर उसके साथ-साथ आंदोलित होने लगता है. ऐसे अनुभव दिमाग पर छप कर उसका हिस्सा बन जाते हैं और दिमाग़ की मौत तक उसमें रहते हैं. इन्हें हम संस्कार भी कह देते हैं.
जब फिल्में नहीं बनती थीं तब ऐसी कहानियां शब्दों, नाटकों, गीतों के माध्यम से यात्रा करती थीं. कथावाचक (किस्सागो) कह कर या गा कर लोगों को कथाएँ सुनाता था. उसका इम्प्रेशन (संस्कार) पाठक-श्रोता के मन पर बैठता जाता था ठीक वैसा जैसा फिल्म देखने पर होता है. मनोरंजन का बाज़ार आकर्षक होता है जिसकी ओर हम मर्ज़ी से खिंचते हैं. कुछ श्रेय कलाकार को भी जाता है. मँजा हुआ लेखक या कलाकार किसी की मृत्यु के अवसर को जश्न में बदल सकता है. रावण दहन इसका एक उदाहरण है.
एक सिलेबस की किताब में पढ़ा था कि श्रम करने के बाद मजदूरों को मनोरंजन की तलब होती है. वे गाना-बजाना करके अपनी थकान उतारते हैं. क्योंकि दुनिया में मेहनतकशों की संख्या सबसे अधिक है तो मनोरंजन का सबसे बड़ा बाजार वहीं है. बाज़ार के खिलाड़ी इस बात को जानते हैं. इस दृष्टि से जातक कथाएँ, रामायण, महाभारत, पुराण और अन्य विस्तारित साहित्य जैसे गीत-गोविंद या पंचतंत्र आदि, ऐसी रचनाएं हैं जो किसान-कमेरों, कारीगरों, शिल्पियों को लुभाती चली आ रही हैं. सदियों से अशिक्षित समाजों ने उन ग्रंथों, कथाओं को तर्क की दृष्टि से नहीं देखा. वे मनोरंजित और धन्य होते रहे. शिक्षित युवा अब तर्क के नजरिए से भी उस कथा-साहित्य को देखने लगे हैं.
आज रचनात्मकता के इतने साधन उपलब्ध हैं कि चाहे कोई भी मनोरंजन की एक दुनिया बना ले, चाबी दे कर उसे चलने के लिए ज़मीन पर छोड़ दे, वो चलती जाएगी. आप भी बनाइए और देखिए, वो सदियों तक चल सकती है.
"अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढ़ना ज़रूरी है."
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