"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


25 April 2021

Caste and Political Divisions - जाति और सियासी विभाजन

 नवल वियोगी ने हाशिए की उन जातियों का इतिहास ढूँढा है जो आज अलग-अलग पहचान रखती हैं लेकिन अतीत में एक ही बड़े कबीले के रूप में दिखाई देती हैं.

    डॉ नवल वियोगी ने अपनी पुस्तक 'मद्रों और मेघों का प्राचीन और आधुनिक इतिहास' में महामहिम बाबू परमानंद को मेघ जाति का बताया है. कैसे बताया वही जानते होंगे लेकिन उनकी बात पर मुझे शक था. कुछ मेघ मंत्री बने हैं लेकिन कोई मेघ राज्यपाल बनाया गया हो ऐसा कभी सुना नहीं. फिर भी उस पर एक पोस्ट मैंने सोशल मीडिया पर डाल दी जिस पर बहस छिड़ गई. मेरी मंशा यह थी कि जिन समाजसेवियों ने मेघ जाति के लिए कार्य किया, चाहे वे किसी भी समाज से हों, उनकी याद कायम रखने का हीला करना चाहिए. लेकिन जैसा कि अक्सर होता है सियासी शख़्सियत पर चर्चा उनकी जाति तक आते ही राजनीति में चली जाती है. 

    सोशल मीडिया पर और बाहर भी पर्याप्त रूप से लोगों ने जानकारी दी कि बाबू परमानंद मेघ जाति से नहीं थे और यह भी कि उनके और भगत छज्जूराम (मेघ) जी के राजनीतिक हितों में टकराव था. अब नवल वियोगी जी तो दुनिया में हैं नहीं कि उनसे कुछ पूछा जा सकता. सो मैंने उस पोस्ट को डिलीट करना बेहतर समझा.

    नवल वियोगी जी की चूक भी इतिहासिक हो गई है.😊 ख़ैर! जिस इतिहासकार ने इतना बड़ा असंभव-सा लगने वाला कार्य किया उससे हुई ऐसी मामूली चूक नज़रअंदाज़ करने के काबिल है.    


10 April 2021

From Madra to Megh - मद्र से मेघ तक - 2

  


    डॉ वियोगी ने पौराणिक साहित्य से भी संदर्भ ले लिए हैं। विष्णु पुराण के अनुसार मग या मद्र, भारत में शाक द्वीप यानि ईरान से आए। (नवल जी की पुस्तक में ‘शका’ छपा है। संभवतः यह शाक शब्द है।) इस द्वीप के मगों में चार जातियां थीं- मग, मगध, मानस और मंदगा अथवा मद्र यानी भारत की तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र यानी मद्र शूद्र थे। जैसा कि पहले बताया गया है मीडिया (Media region) के निवासी मीड (Mede) भारत में मद्र कहलाए। (कुछ अन्य विद्वानों ने लिप्यंतरण करते हुए Mede को ‘मेदे’ भी लिखा है)। मग या मघ एक ही जनजाति थी। पहली जनजाति में से दूसरी उभरी। हेरोडोटस (Herodotus) ने उन्हें मद्रों की एक शाखा बतलाया है, क्योंकि वे मूलरूप से अनार्य थे। भारत में मद्र शिल्पकार अथवा बुनकर के रूप में दिखते हैं, क्योंकि मगों का संबंध मद्रों से था, इसलिए वे बुनकर थे और पुजारी भी। इन्हीं परिस्थितियों में पश्चिम एशिया में मेघ जाति विकसित हुई क्योंकि उनके समाज में ऐसी ही परंपरा थी। मेघ, समाज के एक विशेष वर्ग का पुजारी है। मुख्यतया वे मातृदेवी की पूजा से जुड़े हैं जो जनजातीय परंपरा है। उनके अनेक गोत्र नाम ब्राह्मणों से मिलते-जुलते हैं। जब कि उनसे संबंधित औडुंबरा या डूम वर्ग के लगभग सारे गोत्र ब्राह्मणों से मिलते-जुलते हैं।

तीसरे दौर में भारत आए मेघों से संबंधित वर्ग को विदेशी और म्लेच्छ होने के कारण बहुत समय तक मान्यता नहीं मिली। दूसरी सदी में जब पार्थियन व शकों का राज्य था उन्हें द्विज की मान्यता मिली। इस सम्मानजनक स्थिति पर मज़बूत पकड़ बनाए रखने के लिए उन्होंने ब्राह्मण व ब्राह्मणवाद की बड़ी सेवा की। जातिवाद को मज़बूत करने के लिए कड़े कानून बनाए और स्मृतियों में जोड़े। उसी का परिणाम है कि गंगा घाटी में जातिवाद अपने अत्यंत घिनौने रूप में मिलता है।

‘गोत्र’ के बारे में बताते हुए नवल जी लिखते हैं कि भारत की जलवायु आर्यों के लिए गर्म थी। इसलिए उन्होंने यहां के वनों में आश्रम बना कर रहना शुरू किया। वे चरवाहे थे और गाएं चराते थे। अनेक ऋषि अपनी गायों को विशेष पहचान देने के लिए उनके कान काटकर खास निशानी लगाते थे ताकि उनकी पहचान की जा सके। उस निशान को गोत्र कहते थे। उसी गोत्र के आधार पर आश्रम और ऋषि की पहचान होने लगी। पहले चार गोत्र थे- अंग्रिश कश्यप, अथर्वा, वशिष्ठ तथा भृगु। बाद में चार और जुड़ गए - जगदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त्य। उनमें अनार्य (ईरान से आए मग) वर्ग के ऋषि भी शामिल थे। जब जाति विभाजन कठोर हो गया और लोगों को यकीन हो गया कि आर्य ऋषियों के गोत्र वाले ही वास्तव में ब्राह्मण हैं और अब्राह्मण का अपना कोई गोत्र नहीं हो सकता तब इसी सिलसिले में यज्ञ करते हुए गोत्र नाम बोलने की परंपरा शुरू हुई। क्षत्रिय और वैश्य अपने पुरोहित का ही गोत्र नाम इस्तेमाल करने लगे। विभिन्न वर्णों में समान गोत्र नामों की यह वजह रही। गोत्र परंपरा से पहले पुरोहित और क्षत्रिय ख़ुद को एक ही वर्ग का नहीं मानते थे। इससे जातिवाद विकसित हुआ।

डॉ नवल के अनुसार विश्वामित्र व कण्व कश्यप अनार्य ऋषि थे। महाभारत के अनुसार कश्यप ही नागों (मग) के जनक थे। वशिष्ठ तथा विश्वामित्र का टकराव आर्य-अनार्य का ही टकराव प्रतीत होता है जो बहुत स्पष्ट भी नहीं है। बंगाल के चंदा नामक विद्वान के हवाले से वे लिखते हैं कि इस काल में ब्राह्मणों का लोभ बहुत बढ़ गया था। लोभ व हित साधना के लिए झूठी परंपराएं और निरर्थक अनुष्ठान प्रारंभ किए गए। सारी सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था जैसे उनकी मुट्ठी में आ गई। यजमानों की प्रशंसा बहुत बढ़ा-चढ़ा कर की जाती थी। उन्हें लंबी आयु और अमर पद का लालच दिखाया जाता था। अहीन यज्ञ में 1000 गायें अथवा सारी संपत्ति दान करनी होती थी। गुप्त काल में धर्म व मंदिरों की लूट यथावत जारी रही।

डॉ नवल लिखते हैं, “मद्र अथवा मेघ समाज में प्राचीन काल से ही गणसंघ, गणतंत्र व्यवस्था की परंपरा थी। उनका प्रत्येक नागरिक एक बहादुर सैनिक तथा कुशल शिल्पकार होता था। उनमें राजऋषि परंपरा थी। वह जाति-पांति विहीन समाज था। वहां हर मनुष्य जन्म से ही बराबर था। वे प्रारंभ से असीरियन धर्म के मानने वाले थे। उसका आधार सांख्य दर्शन था। उसने बौद्ध व जैन धर्म को जन्म दिया था। यानी वे बौद्ध अथवा जैन धर्म के अनुयायी थे। बौद्ध धर्मी ब्राह्मणों के सबसे बड़े शत्रु थे। जब गुप्त युग में उनका बलात हिन्दूकरण किया गया तो उन्हें उसी शत्रुता के कारण चौथे वर्ण में धकेल दिया गया। इसका अन्य कारण भी था कि वे मूलरूप में बुनकर थे। क्योंकि बौद्ध-धम्म में मांसाहार की आज्ञा थी यहां तक कि उन्हें मृत पशु का मांस खाने की आज्ञा भी थी अतः मेघों को अछूत वर्ग में धकेल दिया गया। यानी एक भाई ने अपने ही भाई की यह दुर्गति की है।” “गुप्त भले ही उसी नाग समाज के राजा थे, मगर उनका भी आर्यकरण कर दिया गया और बौद्धों पर धार्मिक अनाचार करने में उन्होंने ब्राह्मणों का पूरा-पूरा साथ दिया।”

आधुनिक काल में जम्मू के क्षेत्र के प्राचीन निवासी मेघों की स्थिति बहुत खराब रही। वे बंधुआ मज़दूरों का जीवन जी रहे थे। काम के बदले उन्हें सूखी रोटी और उतरन मिलती। जिनके पास थोड़ी-बहुत ज़मीन थी उसे नैतिक-अनैतिक तरीकों से राजपूतों ने हड़प लिया। जम्मू व सिआलकोट के क्षेत्र में वे खेतिहार मज़दूर थे। अछूत होने के कारण वे घरों तथा मंदिरों में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकते थे। कुओं से पानी नहीं ले सकते थे। वे अधिकतर बुनकर, खेत मज़दूर और कारख़ानों में मज़दूर थे। लेखक काहण सिंह बिलौरिया ने लिखा है, "मेघ निचली जातियों के पुजारी हैं।" भूमि सुधारों के कारण उनमें से कुछ को ज़मीनें अलॉट हुई हैं। वे खेती करने लगे हैं।

प्रो. हरिओम शर्मा अपनी रचना 'हिस्ट्री आफ जम्मू एण्ड कश्मीर' में लिखते हैं- “उच्च शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण के कारण अनेक मेघ ऊंची श्रेणी के पदों आई.ए.एस., आई.पी.एस., आई.एफ.एस., डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक प्रबंधक सेवाओं के पदों तक पहुंच गए हैं।"

कुछ अभिलेखों से प्रमाण मिले हैं कि अनेक मेघ ठाकुर जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के राज्यों में शासक रहे हैं। पठानकोट के पठानिया राजवंश का संबंध मद्र या मेघ समाज के साथ था। उन्हें मूल रूप से औडुंबरा पुकारा जाता था। उसी से डूम शब्द बना। मुग़लों के शासन काल में पठानिया प्रसिद्धि प्राप्त शासक थे। वे राजपूत पुकारे जाते थे। सिखों के शासन काल तक वे सत्ता में रहे। मद्र तथा मेघों की तरह यह एक बुनकर जाति थी।

मेघों के इतिहास  का यह बहुत ही संक्षिप्त वर्णन है। बेहतर होगा कि डॉ नवल वियोगी की मूल पुस्तक ‘मद्रों और मेघों का प्राचीन और आधुनिक इतिहास’ ध्यान से पूरी पढ़ी जाए और ख़रीद कर पढ़ी जाए। फिर से अनुरोध है उनकी मेहनत का सम्मान होना चाहिए।

पुस्तक का नाम: मद्रों और मेघों का प्राचीन व आधुनिक इतिहास

लेखक - डॉ नवल वियोगी

प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन, 32/3, पश्चिम पुरी, 

नई दिल्ली-110063

खरीद के लिए संपर्क - मोबाइल - 9810249452, 9818390161



03 April 2021

From Madra to Megh - मद्र से मेघ तक -1

डॉ नवल वियोगी ने मेघों की लगभग पूरी कथा लिख डाली। यह बात समझी जा सकती है कि उनके द्वारा इकट्ठी की गई जानकारी पूरे मेघ समाज तक जल्द पहुंचने वाली नहीं है। यह चिट्ठा एक कोशिश है कि नवल जी ने जो खोजा-पाया है उसकी कहानी का सार मेघनेट के पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की जाए। यह स्कैच मात्र है। बेहतर होगा कि उनकी लिखी पुस्तक ‘मद्रों और मेघों का प्राचीन और आधुनिक इतिहास’ पूरी पढ़ी जाए और ख़रीद कर पढ़ी जाए। उनकी मेहनत की क़द्र की जानी चाहिए।

‘मेघ’ (जनजाति) शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों ने कई अनुमान लगाए गए हैं। लेकिन जाति नाम के तौर पर यह शब्द कब और कैसे अस्तित्व में आया इसका कुछ उत्तर डॉ नवल की पुस्तक में मिल जाता है। इसका मद्र, मग, मागी, मीडिया (दक्षिणी ईरान का क्षेत्र) से संबंध है ऐसा इतिहासकार ने बताया है। 

मद्र नामक जनजाति ईरान के मीडिया प्रदेश में रहती थी। उनके पुजारी या पुरोहित मग कहलाते थे। उनकी भाषा अमेगीर (Emagir) थी। वे मग बेबीलोनिया और काल्डिया में भी पुजारी थे। वहीं से इनका भारत में आगमन हुआ था। नस्ली तौर पर वे द्रविड़ थे। मीडिया में गोल सिर वाले अल्पाइन अथवा कसाहट लोगों के साथ दीर्घकाल तक रहने के कारण उनमें संकरण हुआ। उनके समाज में राजऋषि परंपरा थी। शासक राजा धार्मिक मुखिया भी होता था। इसलिए मग धीरे-धीरे पुजारी बन गए।

उनका समाज गणतांत्रिक था। जहां प्रत्येक नागरिक बराबर था। उनकी सामाजिक परंपराओं के अनुसार सभी नागरिक बहादुर सैनिक होते थे और कुशल शिल्पी भी। मद्रों का संबंध जोहाक नाग राजपरिवार के साथ था। मद्र भारत में जोहाक या तक्षक नाग परिवार की एक शाखा के रूप में हैं। अर्थात मद्रों और मगों दोनों का संबंध उस जोहाक या नाग परिवार के साथ था जो गांधार और तक्षशिला के शासक थे। 2500-2100 ई.पू. जब आर्य ईरान आए तब वहां के शासक बन गए। उनमें पशु-वध से जुड़ी यज्ञ परंपरा थी। मग राजऋषि उनकी यज्ञ परंपरा से जुड़े और उनके पुजारी बने। 

मगों का भारत में पहला आगमन तब हुआ जब आर्यों ने ईरान पर आक्रमण किया। जीवन रक्षा के लिए वे कई अन्य ईरानियों के साथ भारत भू-भाग में आ गए। वे अपना असीरियन धर्म भी साथ लाए। यह सांख्य दर्शन पर आधारित था। इसी में से बौध और जैन धर्म आए। ये बराबरी और भाईचारे पर आधारित थे। आर्यों ने 1650 ई.पू. भारत पर आक्रमण किया तब मग भी उनके साथ भारत आए। मगों ने ऋग्वेद की रचना और जाति आधारित व्यवस्था निर्माण में मदद की। मग द्रविड़ थे लेकिन आर्यों के साथ रहने के कारण ख़ुद को आर्य समझने लगे थे। लेकिन आर्यों ने उन्हें आर्य नहीं माना।

मीडिया के मग पुरोहित तंत्र विकसित करने की ओर प्रवृत्त रहे। ईरान में कोई यज्ञ उनके बिना नहीं होता था। उन्होंने ज्योतिष विद्या विकसित की। वे सपनों के आधार पर भविष्य बताते थे। इन्हीं कलाओं की सहायता से वे राजाओं-महाराजाओं की निकटता प्राप्त कर पाए। अंधविश्वासी होने के साथ-साथ वे झूठा दिखावा भी करते थे। इससे उन्हें राजनीति में घुसपैठ करने और समाज में महत्व पाने का अवसर मिला। तभी एक हादसा हो गया। अख़माइन राजवंश के राजकुमार डेरियस प्रथम के सिंहासनारूढ़ होने में गोमत नामक मशहूर राजऋषि मग नेता बाधा बन गया। नतीजतन उसकी और उसके मागी साथियों की हत्या कर दी गई। उन्हें सबक सिखाने के लिए एक मेगाफ़ोनिया नाम का पर्व मनाया जाने लगा। किसी एक मग को पकड़ कर उसे 5 दिन के लिए ईरान की राजगद्दी पर बिठाया जाता। उसके बाद उसे फांसी दे दी जाती। इस दिन मगियों को कई तरह से अपमानित किया जाता। जिससे वे अपने घरों में छिप जाते। बरसों के अपमान से दुखी होकर 521 ई.पू. के आसपास वे मग बलुचिस्तान, सिंध, गुजरात व विन्ध्याचल के रास्ते मगध में चले गए। यहां भी 5-6 सौ साल तक वे हिंदू समाज का हिस्सा नहीं बन सके। उन्हें म्लेच्छ, मग, विदेशी, यवन, पारसी कहकर पुकारा गया। आखिर उन्हें दूसरी सदी में ब्राह्मण के तौर पर मान्यता मिल गई। लेकिन आर्यों ने उन्हें ख़ुद से नीचे रखा। वे मग, शांकल, कश्यप अथवा कान्यकुब्ज ब्राह्मण कहलाए। डॉ वियोगी ने बताया है कि भविष्य पुराण में उन म्लेच्छ ब्राह्मणों के 10 गोत्र बताए हैं- कश्यप, उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ल, मिश्र, अग्निहोत्री, द्विवेदी, पांडेय, चतुर्वेदी। आगे चल कर इन्हीं ब्राह्मणों ने हिंदू धर्म को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। हिंदू धर्म के कठोर नियम बनाए और पूर्व ग्रंथों में उन्हें जोड़ा।

डॉ वियोगी ने बताया है कि प्राचीन काल में, पश्चिम एशिया से तीन प्रमुख अनार्य जनजातियां आईं- जोहाक अथवा तक्षक नाग, हाइक्सोस अथवा इक्ष्वाकु, यादव अथवा पंचजन्य। ये सभी मूल रूप से एक ही थे। तीनों ही सिंधु घाटी के बसाने वाले थे। अस्थाना शशि और हेरोडोटस के हवाले से बताया गया है कि मीडिया के मीड तथा भारत के मद्र भिन्न नहीं थे। वे मग या मागी मद्रों की ही एक शाखा थे।

उशीनर गणराज्य का एक भाग झंग मधियाना (मग से मधियाना) कहा जाता था। यह दोआब के दक्षिणी भाग में था। उशीनर जन मद्रों से संबंधित थे। यानी मद्र या मग मीडिया की तरह यहां भी एक साथ ही निवास करते थे। आगे चल कर मद्रों ने सिआलकोट (शांकल) पर दीर्घ काल तक राज किया। कौरवों-पांडवों के साथ उनके वैवाहिक संबंध होते थे। सिकंदर के आक्रमण (326 ई.पू.) के समय मद्र अथवा पौरुष उस क्षेत्र में निवासित थे। यहीं से मद्रों के पौराणिक और इतिहासिक सूत्र मिलने लगते हैं।

मगों की एक मुख्य शाखा ने आगे बढ़कर भारत के मध्य-पूर्व में शासन किया। वे चेदि पुकारे जाने लगे थे। उन्हीं की एक शाखा ने मगध पर शासन किया। जरासंध चेदि वंश का प्रसिद्ध राजा था जिसे राक्षस या असुर कहा गया है। कृष्ण और पांडवों के साथ युद्ध में वह मारा गया। चेदियों की एक शाखा ने दक्षिण कोसल व कलिंग पर अधिकार जमाया, नंदों और अशोक महान से युद्ध किया। उन्हीं की एक शाखा थी खारवेल या महामेघवाहन। उसने दक्षिण-पूर्व में बहुत ही शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। ये लोग जैन धर्म के अनुयायी और उसके रक्षक थे। उनकी एक शाखा ने 129 ई.-217 ई. तक कोसंबी में शासन किया। वे बौद्ध धम्म के अनुयायी थे। उनमें 9 बड़े राजा और छोटे 10 राजा हुए। प्रमुख राजाओं के नाम थे- मघ, भीमसेन, मद्रमघ व प्रोष्ठाश्री, भट्टदेव, कौत्सीपुत्र, शिवमघ प्रथम, वेश्रवण, शिवमघ द्वितीय, तथा भीम वर्मन। उनके शिलालेख और मुद्राएं मिली हैं। उनके आखिरी राजा को समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। मध्यकाल (Medieval period) में मेघों की एक शाखा ने मध्य भारत में शासन किया।

(ब्लॉगर का नोट: ऊपर के विवरण से जाना जा सकता है कि ‘मग’ से ‘मेघ’ शब्द की यात्रा सदियों में तय हुई है। मग से मघ बनते हुए इसे 129 ई. से 217 ई. के दौरान कोसंबी में देखा गया है। घ, ध, भ जैसी महाप्राण ध्वनियां भारतीय हैं। ग के घ हो जाने के इस परिवर्तन की भाषा वैज्ञानिक व्याख्या कहीं न कहीं मिल जाएगी। कहा जाता है कि बुद्धकाल ही भूतकाल है। यानि ब का भ और ध का त हो जाना किसी उच्चारण प्रवृत्ति की वजह से है। ‘कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी’ वाली बात है। मीड, मेदे, मेगी, मग, मद्र, मेद, मेध, मध्य, मेघ, मेंग, मींग, मेंह्ग, आदि शब्द एक ऐसी प्राचीन जनजाति की ओर इशारा करते हैं जिसकी सैंकड़ों शाखाएं, वर्ग और जातियां हैं। ये दक्षिण-पश्चिम एशिया के बहुत बड़े भू-भाग में निवासित हैं।)

28 March 2021

Thirst for history - इतिहास की प्यास -2

प्राचीन ‘इतिहास’ की एक मुख्य बात यह थी कि मंत्रोच्चार के साथ राजा का विस्तृत गुणगान करने के बाद जल्दी से यह बोल कर ‘स्वाहा...’ कह दिया जाता था कि - ‘उसके राज्य में जनता बहुत सुखी थी’. कैसे सुखी थी या कैसे सुखी नहीं थी, इसका उल्लेख कम ही मिलता है. उस समय के इतिहासकारों ने राजा से ज़मीन और उपहार लेने होते थे सो प्रजा के बारे में एक वाक्य काफ़ी था. अधिक बताने की ज़रूरत नहीं समझी गई. मेहनती देश की श्रम-संस्कृति का वर्णन जब यज्ञ-संस्कृति करती है तो बहुत कुछ अनकहा रह जाता है. हिरणों की कथा अगर शिकारी लिखे तो यही लिखेगा कि देश का राजा बहुत दयालु था (जिसने उसे बड़ी शिकारगाह दे दी थी)....और कि शिकारी की नज़र जहां तक जाती थी वहां हिरण खुशी से छलांगें मारते थे. बाकी शिकारी जाने या फिर हिरणों को पता होगा.

इंसानों के संबंध में जब इतिहासकार शासन व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, सामाजिक व्यवस्था, धर्म और जनसाधारण के जीवन पर व्यापक टिप्पणियाँ दें तब वह आज के अर्थ में ‘इतिहास’ कहलाता है.

किसी मानव समूह (समाज) का इतिहास तब रूप ग्रहण करने लगता है जब अपने परिवेश से मिले संस्कार समाज के सदस्यों को ऐसा बना दें कि वे दूसरों के जीवन को सकारात्मक रूप से निखारने लगें. अपने अस्तित्व और जीवन-मूल्यों के लिए संघर्ष समाज के जीवन में दिखने लगे और उसका शैक्षिक, बौद्धिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास होने लगे. 

आधुनिक इतिहासकारों ने वह समझदारी विकसित की है जिसमें आम पब्लिक का दुख-सुख जगह पा गया. इसके अलावा प्रमुख घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में सक्रिय विचारधारा, साहित्य, भाषा आदि के महत्व को इतिहास के अन्वेषकों और टिप्पणीकारों ने समझा. इतिहास को लेकर ख़ास तरह के संदर्भ साहित्य में क्या गुण-दोष हैं, किसी विचारधारा की स्थापना किसने और किन परिस्थितियों में की यह बताया जाने लगा है. इसलिए यदि आपके समाज पर किसी दूसरे ने कमेंट्री की है तो उसका इस्तेमाल करते हुए सावधानी बरतें. किसी दूसरे ने गूढ़ भाषा में जो मंत्र लिखा उसका इस्तेमाल करने से पहले अच्छी तरह परख लें कि कहीं वह मंत्र आपको ही बर्बाद करने के लिए तो नहीं लिखा गया.

इतिहास के उल्लेखनीय पात्रों में अपने समाज (परिवार) की परंपराओं के प्रति ‘स्वाभिमान’ जैसे प्रबल और आक्रामक गुणों का उल्लेख होता आया है जिनके बल पर किसी ने अपने समाज को उच्चतर स्थिति, उच्चतर मानकों (स्टैंडर्ड्स) पर बनाए रखने के लिए कार्य किया. कई मेघों की प्रेरक जीवनियाँ बताती हैं कि उन्होंने किस तरह अशिक्षा और कम संसाधनों के बावजूद संतानों का चारित्रिक निर्माण किया, संतानों को शिक्षा दिलाने और आगे बढ़ाने के लिए लंबा संघर्ष किया और उनमें उच्चतर जीवन-मूल्यों का बीज रोंपा. ऐसी सच्ची कथाओं वाला साहित्य समाज में जान फूंकता है. उनका योद्धाओं वाला इतिहास तो है ही.

इतिहास लेखन का छोटा-सा तजुर्बा तब हो जाता है जब हम परिवार की तरक्की के लिए अपने माता-पिता की जद्दोजहद पर निबंध लिखते हैं. माता-पिता के किन गुणों के कारण आप, मैं और गली-मोहल्ले या शहर के लोग उन्हें याद करते हैं. ‘शहर के लोग याद करते हैं’ जैसा वाक्य शहर में सस्ता नहीं मिलता. इसका मूल्य आपके पास रखे संदर्भों, दस्तावेज़ों और मीडिया की ताकत से तय होता है. समाचार पत्र की कतरनें, फोटो, वीडियो, पत्रिकाएं, फिल्में आदि समाज का इतिहास लिखने में मददगार होती हैं.

अपना इतिहास स्थापित करने के लिए बुद्धिजीवियों की मदद ज़रूरी है. उसे छापना और जन-पुस्तकालयों तक पहुंचाना चाहिए. समाज को पुस्तकें मुहैय्या कराइए. मेघ समाज तूफ़ानों का मुकाबला करते हुए वर्तमान तक पहुंचा है. ज़रूरी है कि उसकी गौरवपूर्ण कथा लिखी जाए.


20 March 2021

Thirst for history - इतिहास की प्यास -1

    कुछ दिन पहले मेघ चेतना के पूर्व मुख्य संपादक श्री एन.सी. भगत मेरे यहां पधारे थे. उन्होंने जिक्र किया कि किसी ने उन्हें फोन करके मेघों के इतिहास की जानकारी चाही है (भई यह चाहना तो हमें भी लगी है). 

    बातचीत लंबी थी. इस दौरान श्री एन.सी. भगत ने बताया कि उन्होंने फोन करने वाले को एक सुझाव दिया है कि चार-पांच लोग इकट्ठे बैठकर अपनी जानकारी के हिसाब से मेघ जाति का इतिहास लिखें.

    इस सुझाव में बहुत संभावनाएं हैं. दो या अधिक टीमें भी हो सकती हैं. ये टीमें इकट्ठे या अलग-अलग बैठ कर लिखें. उनके पास प्राधिकृत और पर्याप्त सामग्री हो तो अच्छा परिणाम निकलेगा. डॉ ध्यान सिंह, डॉ नवल वियोगी, श्री ताराराम और कुछ अन्य ने मेघों के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इतिहासपूर्व मेघों के बारे में श्री आर.एल. गोत्रा का आलेख Meghs of India काफी कुछ कहता है. उनके आलेख के संदर्भ अन्य इतिहासकारों ने दिए हैं. इन सभी विद्वानों द्वारा एकत्रित जानकारी उपयोगी है. कोई कहना चाहे तो कह दे कि- ‘Blogging is not writing’, लेकिन MEGHnet ब्लॉग पर मेघों के बारे में बहुत-सी सकारात्मक जानकारियां मिल जाएंगी जो अन्यत्र नहीं मिलेंगी. नए प्रयास करने वालों के लिए हार्दिक शुभकामनाएं.

    इतिहास लेखन के गुणों के बारे में विद्वानों ने हमारे लिए बहुत कुछ लिख छोड़ा है. उसका एक सार यह है:-

    ‘अपने लेखन को पूरी तरह केंद्रित, सीमित रखें. स्पष्ट तर्क दें, अपने मूल विचार शामिल करें, अपनी भावना को अच्छी कहानी की तरह कहें, साथ में सबूत देते चलें, अपने स्रोतों के दस्तावेज़ बनाते चलें, निष्पक्षता से लिखें, पहला और आखिरी पैराग्राफ एक दूसरे का दर्पण हो, आपका लेखन भाषा की प्रचलित रीति में हो और आप जिसे कुछ कहना चाहते हैं उससे बात करता हो.’ (Richard Marius and Melvin E. Page की A Short Guide to Writing About History के साभार)

    इतिहास लेखन प्रोजेक्ट की तरह होता है: 

   अपनी परियोजना की योजना बनाएं. उसका प्रकाशन, उसका बजट प्रबंधन, किसी अन्य लेखक की सहायता कैसे और किन नियमों और शर्तों के तहत ली जाएगी, पुस्तक प्रकाशन की अन्य व्यवस्थाएँ, संपादन, डिज़ाइन और पुस्तक का समग्र रूप, ISBN संख्या और तैयार पुस्तक को बेचना. उसके बाद समय-समय पर अपडेशन या नए संशोधित संस्करण. कुल मिला कर यह एक भरी-पूरी कला है.  

    यदि मैं सिर्फ़ अपना मूल या अपने वंशकर्ता के बारे में जानकारी चाहता हूं, तो मुझे साइंस से इतना सबक़ ले लेना चाहिए कि धरती पर जीवन सूर्य से है और सभी मानव सूर्यवंशी हैं. 'मेघ-माला' पुस्तक यही कहती है. प्रथम मेघ-नारी या मेघ-पुरुष की तलाश है? तो बेहिसाब मग़ज़ फोड़ी कर के आख़िर कहना होगा कि जिस इंसान ने पहली बार धरती पर चैतन्य आंखें खोलीं वही हमारा वंश कर्ता था. वह मानवीय गुणों वाला प्राकृतिक मानव था. उसका नाम कहीं दर्ज नहीं है. 


14 March 2021

After the Hindi translation of 'The Unknowing Sage' - 'The Unknowing Sage' के हिंदी अनुवाद के बाद - 2

    जीवन के आख़िरी वर्षों में फ़कीर चंद जी अपनी फक्कड़ फ़कीरी की पुरानी छवि से निकल आए थे और लोगों को गुरुवाई के असली मतलब समझाने के लिए वात्सल्य भरा कोमल तरीका अपना रहे थे. जीवन के उसी दौर में डॉ लेन की उनसे भेंट हुई थी. लेन ने आगे चल कर फ़कीर पर गहरा शोध किया. कई वर्ष बाद डॉ लेन और मैं फेसबुक पर मित्र बने. 2009 में उनसे संपर्क करने में अमेरिकी स्कॉलर और विश्व के महान समाजशास्त्री Dr Mark Juergensmeyer मददगार हुए...और आख़िर फ़कीर की आत्मकथा और डॉ लेन की पूरी पुस्तक The Unknowing Sage का हिंदी अनुवाद करना मेरे हिस्से में आया. प्रसंगवश, ये दोनों रिसर्चर फ़कीर चंद जी के मानवता मंदिर आश्रम में मेरे पिता श्री मुंशीराम जी से भी मिले थे जो फ़कीर की संगत में 14 वर्ष रहे थे.

    फ़कीर के स्वभाव को देखते हुए मुझे कभी नहीं लगा था कि वे कभी पब्लिक फिगर (Public Figure) के रूप में अपने जीवन की उपलब्धियों के बारे में लिखेंगे या आत्मकथा के रूप में एक पुस्तक लोगों को देंगे. डॉ लेन ने लिखा है कि उनके कहने पर फ़कीर ने 94 साल की आयु में आत्मकथा लिखाई थी. प्रयोजन डॉ लेन के शोध के लिए सहायता करना था. आत्मकथा में केवल ऐसे अनुभवों और घटनाओं का उल्लेख था जिनका संबंध फ़कीर की 'स्व' की खोज से था. ऐसी ही एक घटना पर डॉ. लेन ने एक बहुत खूबसूरत फिल्म बनाई थी ‘Faqir Chand: Inner Visions and Running Trains’. डॉ लेन और उनके सहकर्मी विद्वानों ने फ़कीर पर काफी समीक्षात्मक, विश्लेषणात्मक और आलोचनात्मक दृष्टिकोण से कार्य किया है और दुनिया के लिए फ़कीर की अनुभव-धारा को पहुंचाया है. यह कहना ठीक होगा कि पश्चिमी जगत का फ़कीर से परिचय डॉ डेविड सी. लेन और उनकी टीम के ज़रिए हुआ है. 

    आखिर में अनुवाद की भाषा के बारे में लिख देना ज़रूरी है. जहाँ तक हो सका मैंने उसी हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग किया है जो फ़कीर की भाषा-शैली के अनुरूप है. संस्कृतनिष्ठ हिंदी से बचने की मेरी कोशिश रही. बहुत से वाक्य शब्दशः फ़कीर की भाषा में और उन्हीं के शब्दों में उतर आए हैं. कहीं-कहीं अंगरेज़ी, उर्दू, पर्शियन और हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्द अर्थ की स्पष्टता के लिए कोष्ठकों (ब्रैकेट्स) में दे दिए गए हैं. भाषा और शब्दों से आगे जा कर मंशा यह रही कि पाठकों तक वो संदेश पहुँचे जो फ़कीर ने अपनी रहनी से दिया.

    ‘The Unknowing Sage’ शीर्षक का हिंदी अनुवाद करने के दौरान कई शब्दों और व्याकरण के साथ हाथापाई हुई. लेकिन अंत में शीर्षक - ‘अनजान वो फ़कीर’ - के साथ हाथ और दिल मिल गए. अनजान यानी - ‘ऐसा फ़कीर जो मन की रचना और उसकी कार्यप्रणाली के रहस्य और ‘चमत्कारों’ को जानता था लेकिन जिन चमत्कारों का श्रेय उसे दिया गया उनसे वो ख़ुद अनजान रहा.’

07 March 2021

After the Hindi translation of 'The Unknowing Sage' - 'The Unknowing Sage' के हिंदी अनुवाद के बाद - 1

        मुझे ‘मानव मंदिर’ पत्रिका के 1968 के कुछ अंकों की तलाश थी. उन्हीं की तलाश में लगभग पाँच वर्ष पहले मैं मानवता मंदिर, होशियारपुर, पंजाब गया था. मुझे ऐसी पुस्तक की भी तलाश थी जिसमें परमदयाल फ़कीर चंद जी की जीवनी हो.

    फ़कीर ने अपने बारे में सत्संगों में हालाँकि बहुत कुछ कह दिया हुआ है जिसे मैंने उनके सामने बैठ कर उन्हीं से सुना है, लेकिन, डॉ. डेविड सी. लेन की पुस्तक ‘The Unknowing Sage’ में मैंने फ़कीर की एक विशेष नज़रिए से लिखी और अंग्रेज़ी में अनूदित आत्मकथा देखी थी जिसका हिंदी पाठ मैं पढ़ना चाहता था. उसकी उर्दू या हिंदी पांडुलिपि मानवता मंदिर आश्रम में उस समय मिल नहीं पाई.

    उसी साल मैंने डॉ. लेन को प्रस्ताव किया था कि मैं उनकी पुस्तक का हिंदी अनुवाद करूँगा. उद्देश्य यह था कि फ़कीर के बारे में डॉ. लेन की खोज तथा दृष्टिकोण से हिंदी के पाठक भी परिचित हो सकें. वे जान सकें कि ‘चंदियन प्रभाव Chandian Effect’ क्या है उसका मनोवैज्ञानिक, परामनोवैज्ञानिक और दार्शनिक महत्व क्या है. लोग जान सकें कि साधक या अभ्यासी हमें सामान्य (normal) प्रतीत क्यों नहीं होते. कभी-कभी तो परम दयाल जी भी अपने अनुभवों के सूक्ष्म पक्ष का वर्णन करते हुए कह दिया करते थे कि ‘हो सकता है मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया हो. लेकिन मैं इसलिए आश्वस्त हूँ कि मैं दुनियाँ के काम-काज ठीक से कर पा रहा हूँ.’ इससे पता चलता है कि वे कितनी सतर्कता से अपने मन की चौकसी करते थे.

    डॉ लेन के लिए ख़ासकर लिखाई गई अपनी आत्मकथा में फ़कीर ने अपने जीवन के ऐसे पक्षों पर काफी कुछ कहा है जिनके बारे में प्रभावशाली लोग कुछ कहने से बचते हैं. फ़कीर ने अपने सत्संगों में अपने निजी जीवन के बारे में ऐसी बातें बताई हैं कि दूसरा कोई हिम्मत नहीं करता. ध्यान देने वाली बात है कि फ़कीर के सत्गुरु दाता दयाल जी ने जब-जब फ़कीर में कोई कमी-कमज़ोरी देख कर फ़कीर को सुधरने का आदेश दिया तब फ़कीर ने तुरत और हमेशा के लिए ख़ुद में सुधार कर लिया. यह बात बहुत महत्वपूर्ण है. 1960 के दशक में वे एक तरह की ‘डंडे मार’ शैली में सत्संग कराते थे. उनके उस फक्कड़ फ़कीराना रूप को जिसने देखा वो किसी और के लायक नहीं रहा. लेकिन 1972-73 के सत्संगों में वे मन का ऑपरेशन करने वाले सहज सर्जन के रूप में दिखे. तब उनकी फ़कीरी से फूटती आध्यात्मिकता की किरणों में एक बौद्धिकता भी आ गई थी. इस परिवर्तन का मैं ख़ुद गवाह रहा.

    1978 तक आते-आते उनकी भाषा बहुत प्रेममयी और कोमल हो गई थी. यह वही फ़कीर था जो साठ के दशक में ‘डंडे मार’ भाषा का प्रयोग इसलिए करता था क्योंकि कई गुरुओं ने गुरुवाई को लूट का साधन बनाया हुआ था.  


02 March 2021

Dharma and Dhamma - धर्म और धम्म

    कई जगह मैंने लिखा है कि मैं नास्तिक-सा हो गया हूं. इसका अर्थ यह है कि मैं आस्तिकता और नास्तिकता के बीच झूल रहा हूं.

    झूलना अच्छी बात नहीं होती. कहते हैं कि कहीं टिक जाना अच्छा होता है. और कहा यह भी जाता है कि टिकने से कुछ नहीं होता, वहां से निकल जाना ही अल्टीमेट (परम) होता है. मेरा मानना है कि आस्तिकता और नास्तिकता दोनों रिश्तेदार हैं. ये दोनों संशय की डोरी से बँधे होते हैं. उधर हमें पढ़ाया भी गया था कि धर्म शब्द से ही धम्म शब्द बना. फिर पढ़ाया गया कि धम्म शब्द पाली का है और धर्म शब्द से पुराना है. चलो ठीक है जी. लेकिन जब दोनों शब्दों की अवधारणाएँ देखने का अवसर मिला तो पता चला कि खेल अवधारणाओं का ही है जो एक दूसरे के उत्पाद की निंदा करती दिखती हैं. यह काट-पीट और काट-छांट बौद्धिक है और राजनीतिक भी. कोई पूछ सकता है कि अब इस पोस्ट का मेघनेट पर क्या काम? अपने नास्तिक-आस्तिक होने की बात छोड़ भी दूं तो कम से कम मुझे अपनी इतिहासिक पृष्ठभूमि और धार्मिक यात्रा के आधार पर इस अवधारणा की स्पष्ट जानकारी होना बहुत ज़रूरी है. 

    "सम्राट अशोक ने धम्म का ग्रीक अनुवाद 'युसेबेइया' कराया न कि रिलीजियन. ग्रीक भाषा में रिलीजियन को 'थ्रिस्किया' कहा जाता है. 'थ्रिस्किया' में देवताओं या ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास ज़रूरी होता है. लेकिन 'युसेबेइया' में यह ज़रूरी नहीं होता."   

    मोटा-मोटी यह समझ आया कि धर्म कई तरह की पूजा पद्धतियों और नैतिक संहिताओं (Moral Codes) के समूहों का नाम है जिन्हें हर व्यक्ति अपने-अपने परिवेश में अपने-अपने तरीके से 'धारण' करता है. किस व्यक्ति ने क्या धारण किया वह दुनिया में कई नज़ारों और रंगों में दिखेगा. धर्म हर व्यक्ति का नितांत निजी पहनावा है. उसके समानांतर एक 'संगठित धर्म' की अवधारणा दिख रही है जिसे प्यार से देखता हूँ लेकिन उससे डरता हूँ. इधर धम्म ने ईश्वर जैसी अवधारणा को महत्व न देकर व्यक्ति के ऐसे नैतिक प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया जिससे पृथ्वी पर पूरा मानव समाज लाभान्वित हो. धम्म के विश्व प्रसार के पीछे यही तत्त्व कार्य करता दिखता है.

    'नो-पोलिटिक्स ज़ोन' में खड़े हो कर कहा जा सकता है कि धम्म और धर्म की (दोनों) अवधारणाएँ एक-दूसरे के क्षेत्र में अपना-अपना दख़ल रखती हैं - कभी प्रेम से कभी मन-मुटाव से.


27 February 2021

Meng, Makhs or Maghs - मेंग, मख, मघ

    लगभग एक वर्ष पहले मैंने एक ब्लॉग लिखा था - गुंजलिका में एक कथा

    ‘मेंग’ को ढूँढने निकले मेरे ख़्यालों के जंगली घोड़े दूर-दूर तक घूम आए थे. उत्तर-पूर्व में, बल्कि उससे भी आगे. उसी ब्लॉग में लार्ड अलेग्ज़ैंडर कन्निंघम को भी उद्धृत किया था.

    अब इतिहासकार श्री ताराराम जी ने फेसबुक के एक ग्रुप ‘Megh विचार गोष्ठी’ में एक पोस्ट डाली है जिसमें उन्होंने मध्यकाल में मेघों के लिए प्रयुक्त कुछ अन्य नामों का भी उल्लेख किया है यथा- मेख, मख, मोकर या मौखरि. अपनी पोस्ट में वे लिखते हैं- “अपने मूल स्थान से विस्थापन के बाद यह जाति सिंधु से बर्मा तक फैल गयी. जहां मंगोल जाति से इसका संपर्क हुआ. अरकान का क्षेत्र इसके अधीन था. मेघों के वहां निवास के कारण ब्रह्मपुत्र नदी का नाम वहां पर मेघना हो गया. मेगाद्रू और मेघना, दोनों नामों में मूल जाति (मेग) का नाम सुरक्षित है”.

    अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने CULCUTTA REVIEW, Volume LXXX, Page- 193, publication: 1885 का हवाला दिया है और उससे संबंधित स्क्रीन शॉट भी वहाँ पेस्ट कर दिए हैं.


मेघ समुदाय के महान सपूत डॉ पी जी सोलंकी


डॉ बाबा साहब अंबेडकर ने बॉम्बे में मेघ समुदाय को संबोधित किया था इसका उल्लेख मेघवंश के इतिहासकार श्री ताराराम जी कर चुके हैं. उसी की कड़ी में उन्होंने कल फोन से एक संदर्भ भेजा और फेसबुक पर एक ग्रुप 'मेघवंश का इतिहास' में एक पोस्ट लिखी थी जिसे नीचे कॉपी-पेस्ट भी कर दिया है.

"मेघ बिरादरी का महान नेता डॉ पी जी सोलंकी:
डॉ पी जी सोलंकी को वह हर एक शख्स जानता है, जिसने डॉ आंबेडकर का साहित्य पढ़ा है। हर एक वह व्यक्ति जानता है, जो आरक्षण के बारे कुछ जानकारी रखता है और जिसको पूना पैक्ट के बारे में ज्ञान है। डॉ पी जी सोलंकी गुजरात के मेघवाल थे, जो बॉम्बे में जा बसे थे। वे बॉम्बे म्युनिसिपल बोर्ड के लंबे समय तक कॉउंसीलर भी रहे। वे बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य भी रहे। संविधान सभा के भी सदस्य रहे। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में डॉ आंबेडकर के साथ भाग लिया और हमेशा डॉ आंबेडकर का समर्थन किया। सन 1912 में विभिन्न जातियों के सहभोज का आयोजन किया। उन्होंने साइमन कमीशन हो या वयस्क मताधिकार की कमेटी, उनके सामने अछूतों का पक्ष रखा। उनकी वजह से शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के प्रावधान पारित हुए। डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने कई जगह यह जताया कि वे जो कुछ कर पाए है, उसमें डॉ सोलंकी का महत्वपूर्ण योगदान है। इनके विस्तृत कृतित्व को कुछ पंक्तियों में नहीं लिखा जा सकता है। इस पर फिर कभी लिखा जाएगा।
अभी यहां पर वसंत मून द्वारा लिखित पुस्तक के एक अंश का उल्लेख कर रहे है, जिसमें डॉ सोलंकी की जाति का उल्लेख है, अन्यथा अन्य ग्रंथों में उनका उल्लेख डॉ सोलंकी के रूप में ही हुआ है। डॉ सोलंकी मेघ बिरादरी के एक दूरदर्शी और अपराजित योद्धा थे। हालांकि, उन पर ईसाई धर्म अपनाने के लांछन लगे, पर वे अछूतों के हितों को सुरक्षित करवाने हेतु हमेशा कटिबद्ध रहे और डॉ बाबा साहेब अंबेडकर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर योजनाबद्ध कार्य करते रहे। गोलमेज सम्मेलन में डॉ आंबेडकर के व्यस्त रहने पर उन्होंने हर तरह से डॉ बाबा साहेब अंबेडकर के करवां को गतिमान बनाये रखा। इसलिए उन्हें डॉ आंबेडकर का एक मजबूत बाजू भी कहा जाता था।
वसंत मून (1991) अपनी पुस्तक 'बाबा साहेब डॉ आंबेडकर' में लिखते है: "सन 1927 के प्रारम्भ काल में ही डॉ आंबेडकर को विधान मंडल का सदस्य नियुक्त किया गया। 18 फरवरी 1927 के दिन उन्होंने शपथ ग्रहण की। उनके साथ ही मेघवाल समाज के डॉ सोलंकी भी अस्पृश्यों के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त हुए थे।"







20 February 2021

Anniversary of Santram BA - संतराम बीए की जयंती

    

मानव इतिहास की हर तारीख को कुछ न कुछ घटित हुआ होता है. 14 फरवरी 2021 को मेघ समुदाय के श्री संतराम बी.ए. (14-02-1887 से 31-05-1988) की जयंती थी. फेसबुक पर बहुत पोस्ट उनके बारे में आईं. दो का उल्लेख कर रहा हूँ जो उनके बारे में लेखकों की भावनाओं और संतराम जी के जीवन और कार्य पर प्रकाश डालती हैं.

डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा ने लिखा:    

संतराम, बी. ए. -जाति - पाँति का खूब विरोध किए.....खूब जिए....खूब लिखे.....छोटी - बड़ी 100 किताबें लिखीं ....101 साल जिए....प्रेमचंद ने खुद जिनकी पुस्तक "काम-कुंज" का संपादन किया.....राहुल सांकृत्यायन ने खुद जिनका संस्मरण "जिनका मैं कृतज्ञ" में लिखा.....बाबा साहब अंबेडकर ने खुद जिनकी चिट्ठियों को "एनिहिलेशन ऑफ कास्ट" में शामिल किया.....

    विलक्षण व्यक्तित्व संतराम, बी. ए. - अल बेरुनी के भारत को हिंदी में पहली बार परिचय कराने का श्रेय इन्हें है....तीन खंडों में अनुवाद प्रस्तुत किए....वो भी तब, जब अभी छायावाद जन्म ले रहा था....मातृभाषा पंजाबी....फारसी में ग्रेजुएट थे.....अरबी पढ़ते थे.....अंग्रेजी पढ़ते थे .....हिंदी पर मजबूत पकड़ थी....1925 तक चीनी बौद्ध यात्री इत्सिंग की भारत - यात्रा का किसी भी भारतीय भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ था....इसे पहली बार हिंदी में अनूदित करने का श्रेय इन्हें है.....

    संतराम, बी. ए. - खूब जिए, खूब लिखे, जाति - पाँति का खूब विरोध किए, खुद जाति - पाँति का शिकार हुए, साहित्य में, इतिहास में वो जगह नहीं मिली जिसके हकदार थे….इसीलिए कि कुम्हार थे...... (जब डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने फेसबुक पर संतराम बी.ए. के बारे में यह पोस्ट लिखी थी तभी इतिहासकार ताराराम जी ने उस पर एक टिप्पणी कर के कहा था कि संतराम जी मेघ थे.) 

दिलीप मंडल की पोस्ट थी थी:

    'जात-पात तोड़क मंडल' के संस्थापक, प्रखर विद्वान, पंजाब विधान परिषद के पूर्व सदस्य, संपादक एवं प्रसिद्ध समाजसुधारक संतराम बी.ए. की 135वीं जयंती पर उन्हें नमन।

    "मैं ऐसा समाज देखना चाहता हूं जिसमें न कोई इतना निर्धन हो कि उसे किसी से मांगने की आवश्यकता हो और न ही कोई इतना धनाढ्य हो कि लोगों को धन लुटा सके "- संतराम बी.ए.

    "मैं न किसी को अपने से नीचा मानता हूं और न किसी को अपने से ऊंचा"  - संतराम बी.ए.

    "मैं न तो हिन्दू धर्म, ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म नाम के कोई अलग-अलग धर्म मानता हूं और न भारतीय संस्कृति या पाश्चात्य संस्कृति नाम की कोई अलग-अलग संस्कृतियां। मैं केवल मानव धर्म और केवल एक मानव संस्कृति मानता हूं। मेरी सम्मति में धर्म उन विषयों का नाम है जो मानव समाज में सुख शांति बनाए रखने में सहायता देते हैं। संस्कृति भी मानवी व्यवहार को सुखद बनाने वाली बातें ही हैं। - संतराम बी.ए.

            चला जाऊंगा छोड़कर जब इस आशियाने को,

            वफाएं तब याद आएंगी मेरी इस जमाने को। - संतराम बी.ए.

    संतराम बी.ए. के नेतृत्व में चल रहे जाति-पाति तोड़क मंडल के निमंत्रण पर ही बाबा साहब लाहौर में भाषण देने जाने वाले थे। वही भाषण बाद में Annihilation of Caste नाम से छपा। - संकलन - Shiv Das


18 February 2021

Ladder of Caste - जाति की सीढ़ी

पिछले तीन वर्ष से मेरे एक परिचित हैं, श्री जतिंदर सिंह, हरियाणा से हैं. उनके नज़रिए से (मेरे भी) एक महत्वपूर्ण विषय को लेकर वे तीन बार चर्चा के लिए मेरे यहां आए हैं. वे जानना चाहते हैं कि क्या मेघ जाति को ओबीसी की सूची में रखने के लिए कुछ किया जा सकता है. विषय मेरी पसंद का है इस लिए चर्चा भी ख़ूब हुई.

उन्होंने मुझे इस बारे में ब्लॉग लिखने और कुछ लोगों से संपर्क करने के लिए कहा. मैंने किया ताकि इस विषय में कोई रास्ता दिखे. मैंने कुछ जानकारों से बात की. लोगों से शेयर किया, फ़ोन किए. अब इस विषय पर अपनी लगभग आखिरी बात रिकॉर्ड कर रहा हूं. 

आज किसी जाति को एक सूची से निकाल कर दूसरी में डलवाना आसान प्रक्रिया नहीं है. ओबीसी जातियों की पहचान का कार्य राज्य सरकारें करती हैं और अनुसूचित जातियों की पहचान का कार्य केंद्र सरकार का है. केंद्र में इनसे संबंधित विभिन्न आयोग भी बने हुए हैं. यदि कोई जाति समाज में बनी जातियों की सीढ़ी पर चढ़ना या उतरना चाहती है तो इस बाबत संसद में सवाल उठते हैं. श्री जतिंदर सिंह अक्सर यह पूछते हैं कि क्या हमारे आईएएस अधिकारी इस बारे में सहायता कर सकते हैं? शायद कुछ मदद कर सकें. लेकिन निर्णय राजनीतिक स्तर पर होता है.

विशेषकर उत्तरी पंजाब में बसी मेघ जाति के पास राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगभग है ही नहीं. राजनीति में उनके कुछ सितारे लगता है जल्दी उभरेंगे. इसलिए वर्तमान सामाजिक स्थिति में फिलहाल रहना होगा. आगे क्या होगा वह राजनीति तय करेगी. बाकी सब अनुमान या हमारे परेशान मन के विषय हैं. व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर मेघ समुदाय उच्चतर सामाजिक स्टेटस का हक़दार है.

सॉरी जितेंद्र सिंह जी, राजनीति में मैं कमज़ोर बच्चा हूँ.


16 February 2021

Asur Religion - असुर धर्म

श्री आर.एल. गोत्रा जी का Meghs of India नामक लंबा आलेख मैंने पढ़ा था तब ऐसा आलेख मेरे लिए वह चौंकाने वाली घटना थी. तब से मैं गोत्रा जी के संपर्क में लगातार रहा.

‘असुर’ शब्द पर उनके द्वारा की गई खोजबीन को मैं बहुत महत्व देता हूं. उनके द्वारा जोड़ी गई कड़ियों से प्रमाणित हो जाता है कि असुर, अशुर, अहुर आदि शब्द एक ही शब्द की वेरिएशंस हैं. भारतीय साहित्य में चाहे वह आधुनिक है या प्राचीन वहां असुर शब्द की जितनी महिमा गाई गई है उतनी ही उसकी फ़ज़ीहत भी की गई है. यह बात आम पाठक के लिए समझना बहुत कठिन है. लेकिन अब इस शब्द का महत्व समझ में आता है. 

प्राचीन इतिहास की कई कड़ियां देखने के बाद श्री गोत्रा ने फेसबुक पर एक ग्रुप Ancientologist Meghs में बताया है कि असुर शब्द का प्रचलन असुर धर्म से हुआ. असुर एक देवता था Mediterranean (जिसमें मेघ भी शामिल थे) का; जो कभी धीरे-धीरे सप्तसिन्धु तक फैल गए थे. काफ़ी समय बाद असुर में विश्वास रखने वाले ही ऐकेश्वरवादी हो गये.

असुर जगह एक घोषित World Heritage वाला मशहूर धार्मिक स्थान है. पुराने समय से यह पर्शिया में टिगरिस नदी के किनारे स्थित है; जहां 4200 साल पहले ‘असुर’ नाम का धर्म शुरू हुआ था. यह धर्म अग्नि पूजक आर्यों से अलग था और इस कारण आर्यों की इनसे बनती नहीं थी. आज कल यह इराक़ का एक ज़िला है. असुर शब्द का प्रचलन इसी से हुआ।

श्री गोत्रा द्वारा उक्त फेसबुक ग्रुप में  दिए गए विभिन्न लिंक्स को जोड़ कर देखने की ज़रूरत होगी.



12 February 2021

Purification - Another Narration - शुद्धिकरण - एक और कथा

जाटों और मेघों का सह-अस्तित्व रहा है. दोनों का सांस्कृतिक संघर्ष और धार्मिक नज़रिया भी लगभग एक जैसा है. आर्य समाज द्वारा शुद्धीकरण के बाद दोनों के अनुभव भी लगभग एक जैसे रहे. जनेऊ पहनने के बाद जिन मेघों ने अपने आसपास की उँची जाति वालों को ‘गरीब नवाज़’ कहना छोड़ कर अभिवादन में ‘नमस्ते’ कहना शुरू किया तो उन्हें मारा-पीटा गया.

शुद्धीकरण के बाद मेघों में यह भावना पैदा हो गई थी कि समाज में उनके स्तर को ऊंचा उठा दिया गया है जिसे समाज सहज स्वीकार करेगा. लेकिन ज़ाहिर है कि आगे चल कर उन्हें कड़ुवे अनुभवों से भी गुज़रना पड़ा. मेघों को सामूहिक तौर पर शक्ति प्रदर्शन करने वाली जाति के तौर पर कम ही देखा गया है. इसके उलट जाट (जट्ट) समुदाय अपने जुझारूपन के लिए मशहूर है. वे संघर्ष करते हैं और अड़चनों को अपने शरीर पर सहने की ग़ज़ब की कूव्वत उनमें है.

मेरे एक जाट मित्र राकेश सांगवान जी ने इतिहास के पन्नों से एक घटना जाट और जनेऊ’ नामक आलेख से साझा की है जिसका सार नीचे दे रहा हूं. इससे आप शुद्धीकरण के सामाजिक, धार्मिक और सियासी अर्थों को अलग-अलग करके देख पाएंगे. राकेश जी लिखते हैं -

मेरी जानकारी अनुसार जाट के गले में यह जनेऊ आर्य समाज आने के बाद ही आया. हालाँकि, हर जाट जनेऊ नहीं धारण करता पर जिन्होंने भी धारण किया उन्होंने बहस और बग़ावत में धारण किया था….1883 के आसपास की बात है, चौधरी मातू राम हुड्डा (पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के दादा) ने जनेऊ धारण किया और अन्य जाट-भाइयों को भी ऐसा ही करने के लिए कहा….इससे काफ़ी हलचल मच गई. काशी से एक ब्राह्मण बुलाया गया. उसने आते ही खडवाली गाँव में इस 'धर्म मर्यादा के विरुद्ध कार्य' के ख़िलाफ़ पंचायत बैठा दी. उसने कहा, "जाट शूद्र होते हैं, जनेऊ धारण करने का अधिकार नहीं है. भगवान इस बात से नाराज़ हो जाएँगे और आसपास के इलाक़े पर मुसीबत आ जाएगी. इसका जनेऊ उतरवा दो"....जब चौधरी मातूराम से यह सब कहा गया तो उन्होंने उत्तर दिया, "जनेऊ किसी कीकर पर तो टंगा नहीं है जो कोई भी उतार ले. मेरी गर्दन पर है. भाइयों के सामने गर्दन हाज़िर है. इसे काट दो, जनेऊ अपने आप उतर जाएगा". पंडित ने दूसरा विकल्प सुझाया, "इनको जाति से बाहर कर के हुक्का-पानी बंद कर दो. चौधरी मातूराम ने कहा, "मैं तो किसी के घर बिना बुलाए जाता ही नहीं. उन्हीं के घर जाता हूँ जो इज़्ज़त से बुलाते हैं. उन्हीं के घर हुक्का-पानी पीता हूँ जो घोड़ी की लगाम पकड़ कर घोड़ी से उतरने के लिए कहते हैं और स्वागत करते हैं."....सब तरफ़ सन्नाटा छा गया. खडवाली के कुछ लोग खड़े हो गए और कहने लगे, "ज़ैलदार साहब, हमारे घर चलो और हुक्का-पानी पियो और जिसका जी चाहे सो कर ले." बस फिर क्या था, चारों तरफ़ शोर मच गया, पंचायत बिखर गई. बहुत से लोगों ने जनेऊ धारण कर लिया….उस ज़माने में यह धर्म का भ्रम देहात में कम था. देहात वालों को इससे कुछ लेना-देना नहीं था. उनकी अपनी मान्यताएं थी. अपनी आस्था थी जैसे कि-- भैया/दादा खेडा/जठेरा या फिर किसी साधू-पीर-फ़कीर का समाधी स्थल. इन्हीं के नाम पर मेले लगते थे जोकि आजतक लगते आ रहें हैं.’

मैंने राकेश सांगवान जी द्वारा बताए गए इस प्रकरण को इसलिए यहां रख लिया है ताकि इसे पढ़ने वाले सचेत रहें कि यदि धर्म आपके भीतर या बाहर संघर्ष पैदा करता है तो धर्म को संशय की दृष्टि से देखने की ज़रूरत होती है.


06 February 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फ़कीर -4

एक परंपरा है कि कोई धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद, कीर्तन-आरती करने के बाद हम उस अनुष्ठान का भोग भी लगाते हैं. उक्त पुस्तक का अनुवाद संपन्न हुआ है. उस पर लिखे गए ये चार ब्लॉग एक प्रकार का भोग हैं और यह चौथा ब्लॉग उस भोग का भी अंतिम पड़ाव है.

यहां पहुंच कर मैं सबसे पहले परम दयाल फ़कीर चंद जी का एहसान मानता हूं कि उनकी शिक्षा के सदके मैं जीवन भर किसी भी प्रकार की धार्मिक लूट से बचा रहा. मैं धार्मिक नहीं हुआ. धर्म में धंसा भी नहीं. नास्तिक-सा ज़रूर हो गया लेकिन वो दरअसल संशयवाद था जो बचपन से ही मेरे साथ चल रहा था. वो मेरी जीवन शैली का हिस्सा था. उसे फ़कीर की शिक्षाओं ने सत्य के प्रति आश्वासन से पोषित किया. मैंने सही मायनों में धर्म को समझा और धार्मिक-सा हो गया. मेघ समुदाय के बारे में मैंने कुछ कार्य किया और उनके इतिहास की कई कड़ियां जोड़ने का कुछ कार्य मैं करता रहा. इस कार्य की पृष्ठभूमि में भी फकीर का दिया हुआ एक विशेष संस्कार था जिसने मुझसे यह कार्य करवा लिया. इतना कह देने के बाद यह जोड़ना भी ज़रूरी है कि हम संस्कारों के बने हैं और उन्हीं के अनुसार हमारा कार्य व्यवहार चलता जाता है. वे समय-समय पर उभर कर मूर्त रूप लेते रहते हैं.

पिताजी 14 वर्ष तक फ़कीर की संगत में रहे. वे उनकी शिक्षाओं का प्रतिरूप हो चुके थे. वे जो भी कहते वह फ़कीर की शिक्षाओं के अनुरूप होता. जीवन भर उनका मार्गदर्शन मुझे मिला. इस तरह से फ़कीर और उनका जीवन-दर्शन और जीवन-व्यवहार पिताजी के रूप में भी मेरे लिए उपलब्ध रहा. फ़कीर का चोला छूट जाने के बाद भी उनके उपलब्ध रहने की भावना हमेशा बनी रही. वो हमें ट्रेनिंग ही ऐसी दे गए थे कि दिल ने कभी माना ही नहीं कि वे दूर हैं. वो आज भी अंग-संग हैं. उन्होंने जो-जो कार्य करने का संस्कार दिया हुआ है वे करवाते रहते हैं.

अंत में यह कि उनका कहा हुआ सच, उनका किया हुआ कार्य धन्य है. उनका यह अनुभव-ज्ञान भी धन्य है कि अंतिम सच्चाई कोई नहीं जानता.

सब का भला.


03 February 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फकीर-3

 The Unknowing Sage (अनजान वो फकीर) के अनुवाद के बारे में जो कुछ मैंने अभी तक कहा है वह तब तक अधूरा रहेगा जब तक मैं यह ना बता दूं कि इसके अनुवाद की प्रक्रिया के दौरान मेरे मन पर क्या-क्या बीती. मैं किन-किन स्मृतियों के बीच से गुजरा.

 फ़कीर से मेरा पहला परिचय संभवतः 1962 में हुआ था जब पिताजी होशियारपुर से उनकी फोटो लाए थे उसके बाद 1968 में मेरे बड़े भाई मुझे पहली बार होशियारपुर में मानवता मंदिर ले गए थे जो फ़कीर का कर्मक्षेत्र था. फ़कीर का ज़ाहिरा रूप एकदम साधारण था लेकिन प्रेम से भरा था. वे बिना माइक के ऊंची आवाज़ में सत्संग कराते थे. अंदाज़ ऐसा जैसे कोई कह रहा हो ‘मैंने सच्चाई बता दी; मुझे क्या परवाह.’ उनका सबसे अधिक रेखांकित वाक्य रहता - ‘सत्संगियों के अंतर में या बाहर मेरा रूप प्रकट होता है लेकिन मुझे पता नहीं होता’.

मैंने कई लोगों को देखा जो उनके पास आकर कहते थे कि ‘महाराज जी, आपका रूप प्रकट हुआ’ और ‘मेरा यह काम हो गया’, ‘मुझे यह हिदायत दे गया जिससे मुझे फायदा हुआ’, 'आपने मुझे बचा लिया', वगैरा.

मेरा होशियारपुर आना-जाना रहा और मैंने विद्यार्थी जीवन में गर्मियों की लगभग सारी छुट्टियां मंदिर में बिताईं. उनके सत्संग सुने. उन्होंने बहुत सारी सीख दी. बहुत सी सीख मेरे जीवन में उतर गई. बहुत सी सीख नहीं भी उतरी. यह बात मुझे याद आती है कि उन्होंने मुझे त्रिकुटी पर उंगली रखकर कहा था कि यहां सुमिरन किया करो. मेरे रूप का ध्यान किया करो. वह मैंने याद रखा. आदत के रूप में वह आज भी जीवन में है.

उन्होंने मुझे ऊंचे साधन से मना किया था. उसके बाद मेरे पिताजी ने भी मुझे ऊंचे साधन करने से मना किया. क्यों किया वही जाने. लेकिन फ़कीर द्वारा किया गया ऊंची अवस्थाओं का वर्णन मेरे मन पर गहरा बैठा हुआ है. उसने उक्त पुस्तक के अनुवाद में बहुत सहायता की.

विशेष बात यह है कि अनुवाद की प्रक्रिया में मैं उन अवस्थाओं के आसपास घूमता रहा जिनका वर्णन फकीर ने जीवन भर किया.


31 January 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फ़कीर-2

The Unknowing Sage का अनुवाद करते हुए पिछले चार महीने तो ऐसे गुज़र गए जैसे सपना जल्दी-जल्दी गुजरता है. लैपटॉप की स्क्रीन के सामने घंटों बैठा, कई बार खाना ठंडा हुआ, कई बार मेहमानों को थोड़ा इंतजार करना पड़ा. आंखों पर दबाव भी पड़ा लेकिन धुन थी कि कार्य पूरा करना है. वादा किया है और निभाना है.

यह ऐसी पुस्तक है जो मेरे दिल के बहुत करीब है. बाबा फकीर चंद ने जो अपना जीवन अनुभव कहा उसका मनोवैज्ञानिक, धार्मिक और दार्शनिक विश्लेषण डॉ लेन ने बहुत परिश्रम से किया है. उनके इस कार्य में विश्व के प्रसिद्ध समाजशास्त्री मार्क जुर्गंसमेयर का भी योगदान  रहा. वे खुद भी फकीर से पंजाब के होशियारपुर शहर में मिले थे. इस नज़रिए से भी इस पुस्तक को मैं बहुत सम्मान की दृष्टि से देखता हूं और दिल ही दिल में चाहता था कि इसका हिंदी अनुवाद पुस्तक के साथ पूरा न्याय करे. कितना न्याय हुआ इसका मूल्यांकन तो इसके पाठक ही करेंगे. जहां तक मेरी संतुष्टि की बात है मैं संतुष्ट हूं. अनुवाद में कोई कमी नहीं है यह दावा भी नहीं है.

अनुवाद करते हुए कई जगह तो मुझे अनुसृजन (transcreation) की भी ज़रूरत पड़ी  ताकि बात पूरी तरह स्पष्ट हो और पढ़ने वालों को भली प्रकार संप्रेषित हो जाए. लेकिन संप्रेषण के अपने सिद्धांत और सीमाएं हैं. अनुवाद कर डालने के बाद अब मैं उन सीमाओं की परवाह नहीं करता. अब यह कार्य दस्तावेज़ के रूप में पढ़ने वालों के हाथ में रहेगा. यह पुस्तक डॉ लेन की साइट पर यहां उपलब्ध है.


30 January 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फ़कीर - 1

आज से कई वर्ष पहले मैंने डॉ डेविड सी. लेन से वादा किया था कि उनकी पुस्तक द अननोइंग सेज (The Unknowing Sage) का एक समर्पित अनुवाद ज़रूर दूंगा.

पिछले कुछ वर्षों में इसके ऐसे अंशों का अनुवाद मैं करता रहा जो इस कृति का आधार बने थे. उनसे संतुष्ट हो कर शेष पुस्तक का अनुवाद किया. लेकिन मुश्किल यह थी कि जो कुछ उस पुस्तक में लिखा गया था वह लगभग आधा ऐसा था जो मुख्यतः और मूलतः हिंदी-उर्दू में लिखवाई गई  एक आत्मकथा का अंग्रेजी अनुवाद था जिसका फिर से हिंदी में उलथा करना था. यह अपने आप में एक चुनौती थी क्योंकि वह साहित्य किसी न किसी रूप में कई जगह मौजूद तो होगा लेकिन उस तक मेरी पहुंच नहीं थी. डॉ लेन के अनुरोध पर ही फकीर चंद जी ने उर्दू में डिक्टेशन दे कर अपनी आत्मकथा लिखवाई थी. इसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रो. बी.आर. कमल ने किया था.  विडंबना यह कि वह आत्मकथा मानवता मंदिर के प्रकाशनों में नहीं मिल पाई और ना ही उसकी हस्तलिखित कॉपी वहाँ उपलब्ध हो पाई. इस लिए अनुवाद करते हुए केवल एक विश्वास था कि जब मैंने फकीर चंद जी के सैकड़ों सत्संग उनके मुखारविंद से सुने हुए हैं तो उनकी भाषा और मुहावरा ज़रूर मदद करेगा. फ़कीर के दिए हुए ज्ञान को व्यवहारिक नज़रिए से मैं जीवन में नहीं उतार पाया विशेषकर साधन-अभ्यास वगैरा की बातों को. साधन-अभ्यास की गूढ़ बातें वे सरल भाषा में बताया करते थे. साथ ही वे कहा करते थे कि जो कोई उनकी बात को अकली तौर पर या बौद्धिक रूप से समझ लेगा उसको भी 50% फायदा हो जाएगा.

यही कारण था कि उनका अनुभव ज्ञान जो अब मेरे सामने अंग्रेज़ी में उपलब्ध था उसका हिंदी अनुवाद करते हुए उस अकली ज्ञान से सहायता मिली. कई बार ऐसी अनुभूति हुई कि फकीर चंद जी मेरे भीतर बैठकर मुझे डिक्टेशन दे रहे हैं. कई बार तो ऐसा भी लगा कि जैसे अचानक उन्होंने मेरी अर्धनिद्रा अवस्था में आकर मुझे बताया कि यह नहीं बल्कि यह शब्द इस्तेमाल करो. अनुवाद करते हुए मैं उससे मिलता-जुलता शब्द इस्तेमाल कर गया था.

मैं संशयवादी-सा हूँ. चमत्कारों में विश्वास नहीं करता लेकिन ये ऐसे मानसिक अनुभव हैं जो कुछ ना कुछ हैरान तो कर ही देते हैं.

शेष....


25 January 2021

Bhakt and Bhagat - भक्त और भगत

    ऐतिहासिक (historical) सूचनाओं से स्पष्ट है कि पूरा भारत कभी बौद्धमय था. इस ऐतिहासिक प्रभाव से भारत का कोई धरा-खंड या समाज-खंड इससे अप्रभावित रहा होगा ऐसा सोचना कठिन हो जाता है. मेघ समाज भी इसके प्रभाव में रहा होगा इस बात को सहज ही समझा जा सकता है।

     समाज में यह विचार अक्सर चर्चा का विषय रहा है कि मेघ समाज को भगत कब से कहा जाने लगा. कुछ ने इसे भगत कबीर के साथ जोड़ा और किसी ने इसे 'भक्त' शब्द से बिगड़ कर बना मान लिया. किसी ने इसे आर्यसमाज द्वारा शुद्धिकरण और लाला गंगाराम से जोड़ा. लेकिन क्योंकि यह विषय इतिहास और भाषा का है इसलिए भाषा विज्ञानियों की बात सुनना बेहतर होगा.

     प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह जो इतिहास के भी अन्वेषक हैं, उन्होंने बताया है कि कबीर जब अपनी वाणी में 'साधो' कह कर संबोधित करते हैं तो उसका सीधा अर्थ होता है कि वे श्रमण परंपरा के साधु को संबोधित कर रहे हैं. जैसा कि पहले भी मैंने एक ब्लॉग में लिखा था कि कबीर बौध परंपरा के हैं. उसी बात में यह एक और प्रमाण जुड़ जाता है कि कबीर श्रमण परंपरा के ही हैं. साधु का अर्थ होता है 'जो सील संपन्न' हो. डॉ सिंह ने एक बात और कही है जो रुचिकर है. वे लिखते हैं कि कबीर 'भक्त' नहीं थे और कि 'भगत' शब्द श्रमण परंपरा का शब्द है जो 'भगवत' शब्द का संक्षिप्त रूप है. इसलिए कबीर निर्गुण परंपरा के नहीं बल्कि श्रमण परंपरा के 'भगत' हैं इसीलिए वे 'साधु' को संबोधित करते हैं.

     ज्ञान का कोई अंत नहीं जितना ले लिया जाए उतना कम प्रतीत होता है.

 


02 January 2021

Baba Faqir Chand - बाबा फ़कीर चंद

    मैंने पहले भी बाबा फ़कीर चंद पर कुछ ब्लॉग लिखे हैं. उन्हीं की निरंतरता में एक ब्लॉग यह भी है जिसे मैं महत्व देता हूँ. यह डेविड सी लेन की पुस्तक द अननोइंग सेज (The Unknowing Sage) पुस्तक का एक अंश है.   

    "खुशहाल ज़िंदगी जीओ और अपनी आमदनी से ज़्यादा खर्च न करो। अपनी हैसियत से ज़्यादा दान मत दो। मानवता मंदिर या किसी दूसरे गुरु और उनके सेंटर को दान देने के लिए अपने बच्चों की ज़रूरतों में कटौती मत करो। ऐसा करोगे तो यह बहुत बड़ा पाप होगा। खुशहाल ज़िंदगी के लिए एक और बात - बिना नागा नियमित रूप से साधन-अभ्यास किया करो। जैसे खाते हो, सोते हो ऐसे ही यह तुम्हारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा होना चाहिए। हर रोज़ एक या दूसरी चीज़ का दान किया करो। पता है हमारे बुज़ुर्ग क्या करते थे? वे भोजन करने से पहले गाय, कुत्ते और कौवों के लिए अलग निवाले रखते थे। गाय, कुत्ते और कौए के साथ अपना भोजन बांटे बिना नहीं खाना उनका धर्म था। क्या हम उनके रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं? यदि तुम एकमुश्त राशि दान नहीं कर सकते, तो जरूरतमंदों या बेसहारा लोगों के लिए हर रोज़ एक-दो पैसे बचाने की कोशिश करो। इससे तुममें बाँट कर खाने और दान देने की आदत पड़ जाएगी। अगर कोई शख़्स आज दान में एक लाख रुपये देता है, लेकिन फिर कई साल तक कुछ भी नहीं देता है, तो इससे उसे उतना लाभ नहीं होगा जितना उस आदमी को होगा जो एक या दूसरे तरीके से हर रोज़ दान देता है। इसलिए हर रोज़ दान देने, हर रोज़ ध्यान करने और हर रोज़ नए और constructive (तख़लीक़ी, रचनात्मक) ख़्याल करने का उसूल बनाओ। ये तुम्हारी ज़िंदगी को बदलने में मददगार होंगे। जो दान देता है, उसका दिलो दिमाग दानशील और उदार हो जाता है।

    यदि तुम्हारी माली हालत बहुत अच्छी नहीं हैं, तो तुम्हें पैसा दान करने की ज़रूरत नहीं है। महिलाएँ परिवार के लिए भोजन पकाने से पहले एक मुट्ठी आटा या चावल अलग रख दें। जब एक हफ़्ते का चावल या आटा इकट्ठा हो जाए तो उस आटे की रोटी बना कर या चावल पका कर चिड़ियों, कुत्तों और कौवें दें। मैं तहे दिल से ये सुनहरे उसूल तुम्हें बता रहा हूं। ये बहुत छोटी चीजें लगती हैं। लेकिन इन्हें छोटी मत समझो। ये ज़िंदगी को सुखी और खुशहाल बनाने के उसूल हैं। साल के सारे 365 दिन इस नेम का पालन करो, और अगर तुम्हारी गरीबी नहीं जाती, तो मेरी तस्वीर पर फूल मत चढ़ाना, जितना भी चाहे खराब सुलूक करना। हमारे ऋषि-मुनि बहुत बुद्धिमान थे। उन्हें हर चीज़ का मूल कारण पता था। लेकिन आज हम उनके बनाए हुए रीति-रिवाज़ों को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हैं। तुम पुरानी रसमों और सामाजिक रिवाज़ों के महत्व को समझने की कोशिश करो। तुम हर रोज़ भलाई का एक काम करो और एक साल बाद देखो कि तुम्हारे खाते में भलाई के कितने काम हैं।"