भारत
के जाट सिदियन (Scythian)
हैं
और मेघ मेदियन (Median)
हैं.
प्राचीनकाल
से इनका परस्पर सहयोग रहा है
क्योंकि अस्तित्व और व्यवसाय
की दृष्टि से वे परस्पर संबद्ध
रहे.
ख़ैर
यहाँ उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
में जाने की मंशा नहीं है (न ही बाएँ हाथ लगे चित्र वाली पुस्तक यहाँ संदर्भित है).
यहाँ
उनकी दो व्यावहारिक समस्याओें
का उल्लेख करना चाहता हूँ.
1. हिंदू
धर्म में आने से बनी इनकी
सामाजिक स्थिति
2. समुदाय
के रूप में दोनों की साझा शिकायत
कि इनके समुदायों के भीतर और
परस्पर एकता क्यों नहीं होती.
(अभिप्रायः
राजनीतिक एकता से अधिक है).
12.03.2015 को
मित्र राकेश सांगवान जी का
आलेख पढ़ा जिसमें जाट (जट्ट)
समुदाय
के पक्ष का रेखांकन है.
इसमें
आप जाटों की समस्याएँ देख
पाएँगे जो मेघों की समस्याओं
जैसी ही हैं.
आपने
महसूस किया होगा कि मेघों के
मुकाबले जाटों में आत्मविश्वास
अधिक है.
इसके
कई सामाजिक,
आर्थिक,
राजनीतिक
या जेनेटिक कारण होंगे.
लेकिन
ये दोनों मुख्यतः मनुवादी व्यवस्था की मार से प्रभावित
हैं और उससे बचने के लिए एकता
का हथियार ढूँढ रहे हैं.
दोनों
समुदायों में एक प्रश्न प्रतिदिन
पूछा जाता है कि समुदाय में
एकता क्यों नहीं होती.
इस
आलेख को आप भी पढें और देखें
कि सुझाए गए सरल हल पर कैसे
कार्य हो सकता है.
मैं
उनके इस आलेख को एक उत्तम
analytical
(विश्लेषणात्मक)
और
diagnostic
remedy (निवारणात्मक
उपाय)
के
रूप में देखता हूँ जो राजनीति
के क्षेत्र में सकारात्मक
तरीके से असरदार हो सकता है.
मैंने
कहीं पूछा था कि मेघों ने
समय-समय
पर अलग-अलग
मरने का रास्ता क्यों पकड़ा
था.
अब
सांगवान जी का आलेख पढ़ लीजिए-
मिल
कर जीने की तदबीर -
राकेश
सांगवान
"हुस्न-ए-तदवीर
से जाग उठता है नसीब
कौम का,
कभी
बदलती नहीं तकदीर अरमानों
से"
जब
भी दो-चार
जाट इकट्ठा बैठते हैं तो उनमें
पहला सवाल यही होता है कि जाटों
मे एकता क्यों नहीं होती?
जाटड़ा
और काटड़ा अपने को ही क्यों
मारता है?
वैसे
पहली बात तो जाट एक मस्त मौला
और दबंग कौम मानी जाती है और
दबंग मस्त मौले लोग बिना बात
बिना मुद्दे के इकट्ठा नहीं
हुआ करते.
एकता
किसी मुद्दे को लेकर होती है,
कौम हित
के साझा मुद्दे तय करो फिर
देखो एकता कैसे नहीं होती है.
कई लोग
कहते हैं कि सर छोटूराम ने सभी
धर्मों के जाटों को एक कैसे
किया था?
सर छोटूराम
ने कौम को उनके हितों के प्रति
जागरूक किया,
किसान
कौम के सांझा मुद्दे तय किए
जिस से पूरी जाट कौम में एकता
कायम हुई.
जब तक
कौम के पास मुद्दे नहीं होंगे
तब तक लोग ऐसे ही
धर्मों के ठेकेदारों की बातों
में बहक कर बँटते
रहेंगे.
Sir Chhotu Ram जिन्होंने आज़ादी से पूर्व यूनियनिस्ट पार्टी बनाई थी |
यूनियनिस्ट मिशन (Unionist Mission) जिससे राकेश सांगवान जुड़े हैं. |
दुनिया
का कोई धर्म या पंथ हो सभी में
जाट ज़रूर मिलेंगे.
जाट कर्म
में विश्वास करने वाली कौम
है और यही कारण है कि
जब भी किसी धर्म में
पाखंड बढ़ता है तो जाट नए धर्म
या पंथ की तरफ पलायन शुरू कर
देते हैं.
यही कारण
है कि जाट सभी धर्मों
में हैं,
ना कि
किसी डर या लालच की वजह से जाटों
ने धर्म बदला.
वैसे
जाट कहीं भी हो वह सिर्फ अपने
पूर्वजों की पूजा
में ही यकीन रखता है ना कि
बनावटी भगवानों में.
कैप्टन
जून साहब,
श्री
बी. एस.
ढिल्लों
आदि जाट इतिहासकारों ने लिखा
है कि जाट सिर्फ भैया पूजते
हैं, जिसे
पंजाबी में जठेरे
कहते हैं.
जो भाई
गाँव में रहते हैं
उन्हें इसके बारे
में अच्छे से पता
होगा कि बारात चढ़ने से पहले
भैया पर माथा टेका जाता है और
ब्याह के आने के बाद गठजोड़े
समेत भैया पर माथा टेकने जाते
हैं व नव विवाहित जोड़ा भैया
पर छड़ी मारने वाला खेल खेलता
है.
मैं
ज़्यादातर पंजाबी जाटों में
रहा हूँ और उन लोगों
में मुझे कभी भी यह महसूस नहीं
हुआ है कि मैं दूसरों में
हूँ. 1984
के बाद
से सिक्ख व आर्यसमाजी जाटों
में यह दरार जरूर बढ़ गई.
जब मैंने
हरियाणा में रहना शुरू किया
तो यहाँ लोगों की
बात सुनकर एक बार तो मेरे मन
में भी शक हो गया कि क्या हम
लोग वाक़ई में
अलग हैं?
1999-2000 की
बात है,
मैं
भिवानी अपने मकान पर कुछ साथियों
के साथ बैठा था,
वहाँ
गली में एक सरदारों का लड़का
चावल बेचने आ गया.
मैंने
उसे बुला लिया और पूछा कि
कहाँ से है?
उसने
बताया कि पटियाला
से हूँ.
मैंने
उसकी जाति पूछी तो
उसने बताया कि 'भाई,
जट्ट
हाँ'.
वहाँ
बैठे औरों की तसल्ली के लिए
मैंने उससे पूछा जाट नहीं हैं?
उसने
कहा कि भाई एक ही
बात है सिर्फ बोलने का फर्क
हैं, मैं
चौहान गोत्र का जाट हूँ.
उस वक़्त
हमारी गली में अधिकतर मकान
अरोड़ा-खत्री
पंजाबियों के थे,
जाटों
का सिर्फ हमारा ही मकान था.
गली में
सभी औरतें चावल लेने
के लिए इकट्ठा हो गईं,
सभी उस
भाई से पंजाबी में
मोल-तोल
की बातें कर रही
थीं,
मुझे भी
पंजाबी पढ़नी लिखनी आती है
परंतु मैं उस भाई से अपनी ही
बोली में बात कर रहा
था. चावल
लेने के बाद जब मैंने उस भाई
से पूछा कि कितने
रुपए दूँ?
तो उस
भाई ने कहा कि वीर
जी आपाँ बाद में कर
लेंगे पहले इन सबको निपटा दूँ.
उसने
सबके 22
रुपया
किलो के हिसाब से भाव लगाया
और आखिर में मुझे
कहा कि
भाई आप 19
के हिसाब
से दे दो.
तो वहाँ
हमारे पड़ोस की ही एक महिला खड़ी
थी वो यह भाव सुनकर पंजाबी में
बोली 'साढ़े
22 ते
इसदे 19
क्यों?
वो भाई
बोला 'बीबी,
साढ़ी गल
और है'.
यह मिसाल
उन भाइयों के लिए है जो सुनी
सुनाई बातों में
अपनों को अलग मान बैठे हैं.
सर छोटूराम
वाली बात है इंसान कितने ही
धर्म बदली कर सकता है परंतु
खून नहीं.
खून का
रिश्ता सबसे गाढ़ा माना गया
है. देशी
में कहावत है कि
'अपना
मारे छाया में गेरे'.
हमें
सर छोटूराम से ही कुछ सीख ले
लेनी चाहिए उनसे बड़ा हमारा
कोई रहबर नहीं हो सकता.
बहाने
नहीं खोजने चाहिएँ
कि दूसरे धर्म वाले
हमें अपना नहीं
मानते तो हम क्यों मानें?
शुरुआत
'मैं'
से ही
होती है.
यदि वो
हमें अपना नहीं मानते होते
तो सर छोटूराम सर छोटूराम नहीं
बनते.
सर छोटूराम
को मुस्लिम कितना मानते थे
इसका एक किस्सा बता देता हूँ.
सर छोटूराम
ने रोहतक के एक लड़के को राजस्व
महकमे में नौकरी
लगवा दिया और उसकी पहली पोस्टिंग
झेलम शहर में आ गई.
झेलम
शहर जाने के लिए नाव से नदी
पार करनी पड़ती थी.
जब वह
नाव से नदी पार कर रहा था तो
मल्लाह ने पूछ लिया 'जनाब,
कित्थों
आए हो?',
वह बोला
कि रोहतक से आया
हूँ.
मल्लाह
बोला अच्छा छोटूखान के इलाके
तो हो?
उसने
कहा छोटूखान नहीं भाई उनका
नाम छोटूराम है.
मल्लाह
ने कहा नहीं भाई छोटूखान है.
उसने
फिर कहा कि भाई
छोटूखान नहीं छोटूराम है और
मुझे उन्हीं ने
नौकरी पर लगवाया है.
यह सुन
मल्लाह हैरान सा हो कर बोला
'अच्छा!
एना चंगा
बंदा हिन्दू सी!"
ऐसा जलवा
था सर छोटूराम का जो हिंदू,
मुस्लिम,
सिक्ख
सबके लिए एक जैसे थे,
सब उनको
अपना मानते थे.
किसी भी
धर्म वाले को कभी यह एहसास
नहीं होने दिया कि
सर छोटूराम उनसे अलग है.
यदि
दूसरों के मन में फर्क होता
तो सर छोटूराम इतने बड़े नेता
नहीं बनते और ना ही वो जो हमारे
लिए कर गए वो सब कर पाते.
सर छोटूराम
के इस जलवे का कारण था कि
उसने सबके पेट की बात की,
किसान
कमेरे वर्ग को धर्म के ठेकेदारों
की लूट खसोट से बचाया.
इसलिए
इन धर्म मजहब के ठेकेदारों
की बातों में बहकना
बंद कर दो.
यदि किसी
धर्म या मज़हब को
ख़तरा होगा तो उसे
उस धर्म के भगवान या खुदा अपने
आप संभाल लेंगे,
हमसे
ज्यादा फिक्र तो उन भगवान या
ख़ुदा को होनी चाहिए
कि यदि उनकी यह धर्म
मज़हब नाम की दुकान
बंद हो गई तो फिर उन्हें
कौन पूजेगा.
हम चाहे
जिस किसी धर्म को मानते हों
पर हमारा सबका पेशा एक ही है.
इसलिए
कौम हित के सांझा मुद्दे तय
करो फिर देखो कैसे सभी जाट एक
नहीं होते हैं.
कौम हित
की सही तदवीर होगी तो हमारी
कौम का नसीब भी जागेगा,
नहीं तो
हम ऐसे ही लुटते पिटते रहेंगे.
'जय
योद्धेय'
Rakesh Sangwan |
MEGHnet
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