"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


10 May 2011

Why your name should have Megh with it - अपने नाम के साथ मेघ क्यों लिखा जाए

अभी हाल ही में एसएमएस संदेश आए कि आगामी जनगणना में सभी मेघ अपने आपको कबीरपंथी, आर्य आदि न लिखवा कर 'मेघ' लिखवाएँ.

ग़रीब जातियां वृहद् समाज से जोड़ने के लिए ऐसे धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक समूहों के साथ जुड़ना चाहती हैं जहाँ उन्हें पहचान मिल सके. मेघों का विभिन्न धर्मों, पंथों और राजनीतिक दलों में बँटा होना इस बात को दिखाता है कि हम अपनी पहचान खोज रहे हैं. यह समस्या केवल मेघों की नहीं बल्कि सभी ग़रीब मानव समूहों की है.  इनके सदस्य लाभ के लिए अपने जातिगत नाम और धर्म बदल कर अन्य समूहों के साथ मेल-जोल बढ़ाते हैं. क्योंकि गरीब जातियों के इतिहास का इतिहास गुम कर दिया गया है इस लिए अपने जड़-मूल के संबंध में हम परंपरागत रूप से इतना ही जानते हैं कि हम मेघ हैं और दूसरे यह कि हम मेघ ऋषि की संतान हैं जो एक पौराणिक मिथ है और अंतिम सच्चाई नहीं है. इससे अधिक हम जानना चाहें हैं तो इतिहास कोई ख़ास मदद नहीं करता.

हम आर्य समाजी बने यह बहुत पुरानी बात नहीं है. शुद्धिकरण जैसी की प्रक्रिया से गुज़र कर हम हिंदू कहलाए. सनातनी भी बने. राधास्वामी मत में गए. हम कबीरपंथ में भी अपनी पहचान बनाते हैं. ज़रूरतन हम ऐसे धर्म, गुरु, डेरे, समूह आदि के साथ जुड़ जाना चाहते हैं जो हमें समतावादी समाज का सपना दिखाता हो. राजनीतिक रूप से हम पहले काँग्रेसी कहलाए. फिर बीजेपी में स्वयं को ढूँढा. अब बीएसपी में भी अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं. हम बँट गए. हमारी प्रार्थनाएँ बंट गईं. जो चीज़ अभी तक नहीं बँटी है वह यही है कि हम मेघ हैं. यदि हम मेघ के रूप में अपनी पहचान को मज़बूत करते हैं तो हमारी एकता को दिशा मिलती है. सामूहिक प्रयासों को शक्ति मिलती है. संभव है कि इस वर्ष हो रही जनगणना में जातियों के आधार पर भी गिनती की जाए. इससे मेघों की सही संख्या और उनके वोटों की सही संख्या का पता लग सकेगा. जानकारी बताती है कि भारत में मेघ जाति के लोग कश्मीर से कर्नाटका और महाराष्ट्र से पूर्वोत्तर तक बिखरे हुए हैं. बिहार और ओड़िशा में भी वे बसे हैं. हिमाचल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी उनकी उपस्थिति है. लगभग 28 लाख की संख्या आँकी गई है. जोशुआ प्रोजेक्ट की रिपोर्ट यही दर्शाती है हालाँकि यह संख्या बहुत पुरानी है. इससे मेघों की सही संख्या का पता नहीं चलता जो वास्तव में बहुत अधिक है.

बदलती सामाजिक सोच के कारण अब जातिगत पूर्वाग्रह कहीं-कहीं ढीले पड़े हैं. ऐसे में किसी प्रकार के दुराग्रह से बचना होगा. परंतु जिस प्रकार अन्य जातियों ने अपनी पहचान बनाई है उस रास्ते को अपनाने में भलाई है. अपनी जनशक्ति को जाने, अपने समूह के प्रति आशावान रहें, सार्वजनिक मंचों से अपनी एकता का डंका बजाएँ, पढ़ें-पढ़ाएँ, बिरादरी का विश्वसनीय साहित्य और आंकड़ा कोष (data base) तैयार करें, व्यापारी समूह अपना परस्पर-सहायता कोष तैयार करें, धार्मिक और सामाजिक दिखावे के कामों पर ख़र्च न करके सामाजिक सुरक्षा और सहायता के नए तौर-तरीकों पर ख़र्च करें. मेघ जाति की आंतरिक समस्याओँ के निदान के लिए एनजीओ बनाएँ. एक-दूसरे का बहिष्कार करने की प्रवृत्ति को दूर करके भाईचारे को बढ़ावा दें. इससे मेघ महिलाओं की तकलीफें भी कम होंगी.

सक्रिय, गतिशील और परिणाम उन्मुख नेतृत्व की कमी है. उसके लिए सभी मिल कर मालिक से प्रार्थना करें. हम सच्चे मेघ हैं. मेघ बन कर रहें. अपनी और संपूर्ण जाति की निरंतर संपन्नता के लिए प्रार्थना करें.



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