"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


10 May 2011

The first Megh - आदि मेघ

आदि मेघ

जिन भाई बहनों ने इस पुस्तक का पहला प्रकरण पढ़ लियासम्भव है उनके अन्दर आश्चर्य उत्पन्न हो कि बात क्या थी और मेघ शब्द की परिभाषा क्या की गई. प्रश्न तो यह है कि आदि मेघ अर्थात्‌ जो आदमी पहले मेघ बनाकहलाया या रूप में आया वो कौन थाक्या वो पहले किसी और जाति का था उसने किसी की सन्तान होते हुए अपना नाम मेघ रख दिया. यह प्रश्न आदि मेघ के शारीरिक रूप से संबंध रखता है.
यह ठीक है कि शारीरिक रूप में आदि मेघ की खोज करनी है ताकि वर्तमान मेघ जाति के भाई-बहनों को अपने आदि का पता लग जाए. यदि किताबों से पढ़ा जाए तब भी हमारी समस्या का हल पूर्ण रूप से समझ नहीं आता. एक 'जातिकोष नामी पुस्तक है. वह पुस्तक इस समय भी साधु आश्रमहोशियारपुरपंजाब की लाईब्रेरी से पढ़ी जा सकती है. इसके पृष्ठ 77 पर लिखा है कि इनका पूर्वज ब्राह्मण की सन्तान था. वह काशी में रहा करता था. उसके दो पुत्र थे एक विद्वान और दूसरा अनपढ़. पिता ने विद्वान पुत्र को पढ़ाने के लिए कहापर उसने पढ़ाने से इन्कार कर दिया. इस पर विद्वान पुत्र को अलग कर दिया. उसी की सन्तान मेघ है.
अगर यह ठीक है तो ब्राह्मण के विद्वान लड़के की सन्तान का नाम मेघ क्यों रखाक्या यह मेघ नाम बुरा या घृणासूचक है क्योंकि उसने अपने पिता की आज्ञा नहीं मानीक्या आज्ञा न मानने वाले को मेघ कहते हैंदूसरे क्या उस समय पहले से चली आ रही कोई मेघ जाति थी जिससे लोग घृणा करते थे. तो उस जाति के आधार पर घृणा सूचक नाम द्वारा पुकार कर उसका नाम मेघ रख दिया. जिस तरह अगर कोई उच्च जाति का आदमी कोई बुरा काम करे तो उसे नीच या चोर या डाकू या कोई और घृणित नाम से पुकारा जाता है. इस विचार से उस आदमी की जाति नहीं बदली जाती. केवल एक बुरे ख्याल या गाली के तौर पर ऐसा कहा. यदि काशी के ब्राह्मण ने अपने विद्वान पुत्र को इस तरह घृणित समझ कर उसकी सन्तान का नाम मेघ रख दिया और यह मेघ जाति पहले भी थीतो वो ब्राह्मण का विद्वान लड़का आदि मेघ नहीं हो सकता. इसलिए इस किताब में जो कुछ लिखा है उसे बुद्धि नहीं मानती. सम्भव है उसमें मनमानी की गई हो.
इस पुस्तक के शब्दों को ध्यानपूर्वक पढ़ें. इसमें लिखा हुआ है कि इस जाति का पूर्वज ब्राह्मण जाति का था. वह काशी में रहा करता था. उसके दो पुत्र थे. एक विद्वान और एक अनपढ़. जब विद्वान लड़के ने अनपढ़ भाई को पढ़ाने से इन्कार कर दिया तो पिता ने उसको अलग कर दिया. उसी की सन्तान मेघ है. इस जाति का पूर्वज तो ब्राह्मण था और वो विद्वान लड़का भी ब्राह्मण का पुत्र था. उसकी सन्तान मेघ नाम से कैसे मशहूर हो गई. इस समस्या का समाधान मेघ जाति के समझदार आदमी करें.
एक बात और भी है. उस पुस्तक में यह नहीं लिखा कि काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का जम्मू में आकर बसा या किसी और प्रान्त में चला गया. वहाँ पर उसने किस जाति की स्त्री से विवाह किया. अगर मेघ जाति की स्त्री से शादी की और सन्तान पैदा की तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि मेघ जाति पहले भी वहाँ पर थी. इसलिए वो आदमी आदि मेघ नहीं हो सकता है.
हाँएक बात समझ में आती है कि काशी के ब्राह्मण का एक लड़का विद्वान था. जब विचारों को किसी भाषा में लिखा जाता है तो एक-एक बात के कई अर्थ निकलते हैं. विशेषकर जो महापुरुष आध्यात्मिकता का ज्ञान रखते हैंउनकी आध्यात्मिकता की बातों को समझना कठिन है. वो काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का कौन सी विद्या जानता थायदि वो विद्या इन कग द्वारा अक्षरों से लिखी हुई होती तो उसको दूसरों को पढ़ाना कोई कठिन नहीं था. वो यह बाहर की विद्या तो पढ़ा सकता था. ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं. पहला वह जो ब्राह्मण जाति में उत्पन्न हुआ है और आगे उसने अपनी पत्नी ब्राह्मणी के पेट से सन्तान उत्पन्न की. दूसरा ब्राह्मण वो होता है जो ब्रह्म में रमण करता हैवो किसी भी जाति का हो सकता है.
जाति पांति पूछे नहिं कोय, हर को भजे सो हर का होय।
वो काशी का जो ब्राह्मण थावो ऐसा ब्राह्मण नहीं था जो ब्रह्म में रमण करता हो अगर उसके विद्वान लड़के को सच्चा ब्राह्मण मान लिया जाए तो वह ब्रह्म में रमण करता था और ब्रह्म में रमण करने के कारण उसकी सन्तान वास्तव में ब्रह्म की ही उत्पत्ति कहलाती. जितने भी भाव-विचार ऐसे महापुरुषों के अन्दर उठते हैंवो भी उनकी उत्पत्ति ही होती है या सन्तान ही होती है. हम सब संतान पैदा करते हैंकिसी ख्याल के अधीन ही करते हैं. इस दृष्टि से मेघ जाति के लोग ब्रह्म की ही सन्तान हैं. जैसा कि ऊपर लिख आए हैं कि सारी सृष्टि ब्रह्म से ही पैदा होती है. उस विद्वान लड़के को आत्मज्ञान हो चुका था. आत्मविद्या हर एक को नहीं पढ़ाई जा सकतीचाहे अपने कितने भी निकट संबंधी हों. प्राचीन काल से आप देख सकते हैं कि जो आत्मज्ञान रखते थे वे केवल एकाध को आत्मविद्या पढ़ा सके. ऋषियोंमुनियोंसाधु-सन्तों के इतिहास में यह बात देखी गई है.
आत्मज्ञान की विद्या ग्रहण करने के लिए एक तो अधिकार और संस्कार चाहिए. दूसरेअपनो को यह विद्या पढ़ाने में निज स्वार्थ काम करता है. आत्मज्ञान को निज स्वार्थ के लिए नहीं दिया जा सकता. तीसरेयदि आत्मज्ञान अपनी सन्तानअपने भाई आदि को पढ़ाया जाए तो उनको विश्वास भी नहीं आताक्योंकि वो उसे शारीरिक रूप में संबंधी समझते हैं. ऋषि वेद व्यास जी महाराज ने अपने लड़के शुक देव को स्वयं यह विद्या नहीं पढ़ाईबल्कि उसे इस काम के लिए राजा जनक के पास भेजा. जिसको आत्मज्ञान हो जाता हैउसकी रहनी क्या हो जाती हैगीता के अनुसार वो समझ जाता है कि मेरी आत्मा अजर-अमर है.
न जायते म्रियते वा कदाचिन, न अयं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतः अयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
वो जान जाता है कि आत्मा न जन्मती हैन मरती है. न ही कभी उत्पन्न हुईन हैन होगी. वो अजर हैनित्य है और शरीर के मरने पर भी नहीं मरती. अब आप समझ सकते हैं कि यह विद्या हर एक को पढ़ानी कठिन है. इसी तरह काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का आत्मज्ञानी होने के कारण अपने अनपढ़ भाई को विद्या न पढ़ा सका. ऐसे लोग अपने आप अलग हो जाते हैं. अलग होने का अर्थ लड़ाई झगड़ा करके घर छोड़ना नहीं है बल्कि इस जाति पांति से अलग होना है. यदि उसने सन्तान पैदा कीतो वो अपनी सन्तान को बुरा संस्कार नहीं देता. अगर उसकी सन्तानें आत्मविद्या की अधिकारी न भी हों तो वो उनका नाम ऐसा रखता है जिससे उनको अच्छा संस्कार मिले. यदि उसने अपनी सन्तान का नाम मेघ रखा तो मेघ नाम कोई बुरा संस्कार देने वाला नहीं है. हर एक नाम अपने-अपने गुणदोष रखता है. मैंने इसलिए मेघ जाति की मेघ से तुलना की कि वह आकाश से वर्षा करता है. यदि उस विद्वान लड़के ने अपनी सन्तान को उन मेघों का संस्कार दिया तो इससे यह समझा जा सकता है कि मेघ आते हैंबरसते हैं और चले जाते हैं. इसी तरह सब मानव जाति के लोग इस संसार में आते हैं अपना काम करते हैं और चले जाते हैं. इसलिए विश्वास हो गया कि जो कुछ मैंने पहले प्रकरण में लिखावह ठीक है.
जम्मू प्रान्त के रहने वाले लोग इस प्रकार की और बातें भी करते हैं. मैं जम्मू में रहा. दो वर्ष वहाँ पढ़ता रहा. वहाँ लोग सुनाया करते थे कि यह मेघ जाति ब्राह्मण की सन्तान है. प्राचीन काल में कोई ब्राह्मण वहाँ गया. उस समय यह मशहूर था कि ब्राह्मण यज्ञों में गौ की बलि देते हैं और बाद में गौ को जीवित कर देते हैं. एक बात समझ में आई कि गौ इन्द्रियों को कहते हैं. सन्त तुलसीदास ने भी लिखा है :-
गो गोचर जहँ लग मन जाई। माया कृत सब जानियों भाई ।।
जहाँ तक ये इन्द्रियाँ और मन काम करता हैसब माया है. माया कहते हैं जो है तो नहींमगर भासती है. जब योग अभ्यास करने वाले महापुरुष सब इन्द्रियों और मन के ख्यालों को समेट कर आत्मिक अवस्था में जाते हैं तो इन्द्रियों को एकाग्र करने का अर्थ 'गौ की बलि लिया जाता है और जब समाधि से उत्थान होता है इन्द्रियाँ अपनी अपनी जगह काम करने लग जाती हैतो उसको गौ जीवित कर देना कहा गया है यह यज्ञ क्या है. एक तो बाहर में अग्नि जलाकर उसमें सामग्री और घी की आहुति डालते हैं. मगर वास्तविक यज्ञ वो होता है जिसमें अपने अन्दर ज्योति प्रकट करके उसमें अपने मन के विचारों और भावों की आहुति दी जाती है. इसलिए ये कहानियाँ विश्वास योग्य नहीं है. हो सकता है कि अपनी जाति को ब्राह्मणों से जोड़ने के लिए यह कहानियाँ बताई गई हों या जिस तरह मैंने लिखा हैसत्य हो.
मेघ जाति के विषय में एक और भी कथा सुनाई जाती है. पहले इन राजाओं के पास जम्मू रियासत ही थी. यह कश्मीर का इलाका बाद में उन्होंने ख़रीदा था. जम्मू के प्रथम राजा के विषय में सुनाया जाता है कि उसके अंगरक्षक बड़े बहादुर नौजवान थे. जब भी राजा को उनकी सेवा की आवश्यकता होतीआदेश मिलने पर वो एकदम रक्षा करते थे और जिन आदमियों से ख़तरा होता उनको झटपट पकड़ लेते थेसज़ा देते थे. उनसे उधर के लोग बहुत डरा करते थे और उनको कहा करते थे कि ये मेघ हैं मेघ. जिस तरह आकाश से ऊँचे पहाड़ों की तरफ़ से अकस्मात मेघ बरसने शुरू हो जाते हैंऊपर छाये रहते हैंइसी तरह ये अंग रक्षक भी अकस्मात बरसने लग जाते हैं. अपराधी को पकड़ लेते हैं क्योंकि वो लोग भी ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले थे वहाँ की स्थिति के अनुसार और संस्कारों की वजह से उन अंगरक्षकों को मेघ जाति का कहते थे. उसके बाद उन अंगरक्षकों की जो सन्तान हुई वो भी बहादुरी का संस्कार प्रचलित रखने के लिए मेघ कहलाए. ये जातियाँ और उपजातियाँ इसी तरह बनीं. दूसरी सवर्ण जातियों में भी देखा जाता है कि अपने पूर्वजों के नाम प्रचलित हुए. ब्राह्मणों में जिसने एक वेद पढ़ा वो वेदीजिसने दो वेद पढ़े वो द्विवेदीजिसने तीन वेद पढ़े वे त्रिवेदी और जिसने चार वेद पढ़े वो चतुर्वेदी. इसी तरह हर एक जाति और उपजाति के पीछे कोई न कोई घटना हैकोई काम है जिससे उनके नाम मशहूर हो गये. इसलिए इन घटनाओं या कहावत को हम ग़लत नहीं कह सकते. प्राकृतिक संस्कारों के अनुसार भी यह ठीक है.
अब इस प्रश्न को कि मेघ जाति के लोग शारीरिक रूप में कब से बनेआदि मेघ कौन थामैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर लिखूँगा. मेरा जन्म पंजाब में तहसील और जिला स्यालकोट के सुन्दरपुर गांव में 1906 में हुआ. मेरे पिता का नाम श्री मँहगा राम और दादा का नाम श्री नत्थूराम था. ज़मीन अपनी थी. खेती का काम करते थे. कोई समय के बाद मेरे पिता जी ने ठेकेदारी का काम शुरू किया और 40 वर्ष यह काम करते रहे. आर्थिक दशा अच्छी थी. मेरे दादा साधु थे. वे कई तीर्थ स्थानों पर गए और एक दफा सरहन्द में जहाँ गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज के दो लड़के दीवार में चिनवाए गए थे वहाँ लगातार एक महीना उस दीवार को तोड़ते रहे. सुबह ईँटें उखाड़ कर सिर पर रख लेते थे और चल देते थे. जहाँ शाम पड़ती थी ईंटें फेंक देते थेऔर दूसरे दिन वापिस सरहन्द आ जाते थे. उस समय हिन्दु और सिख में नाम मात्र को भी भेद नहीं था. हमारी जाति के निकट गाँव के रहने वाले लोग मेरे दादा जी को गुरु मानते थे. यह सुन्दरपुर गाँव नहरअपर चिनाब और चिनाब नदी के किनारे पर था. वहाँ से थोड़ी दूर त्रिवेणी थी अर्थात्‌ तीन नदियाँ चिनाब दरयाजम्मू तवी और मनावर तवी मिलते थे. वहाँ पर कई साधुसन्त-महात्मा आया करते थे और तप किया करते थे. हमें मेघ जाति के और साकोलिया उपजाति का कहा करते थे. जम्मू की तरफ से हमारा ब्राह्मण पुरोहित हर साल आता था और एक मुसलमान मिरासी भी आया करता था. वे हमारी वंशावली पढ़ कर सुनाया करते थे और आखिर में हमारी जाति को सूर्यवंश से मिलाते थे. यह सूर्यवंशी खानदान श्री रामचन्द्र जी के वंश से संबंध रखता है. उस समय मैं नहीं समझ सकता थामगर अब अपने जीवन के अनुभव के आधार पर यकीन होता जा रहा है कि हम मेघ जाति के लोग सब सूरजवंशी हैं.

भगत मुंशीराम 


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