Baba Faqir Chand |
(The previous post contained the
secret and the importance of physical vitality. Rhonda Byrne’s book 'The
Secret' did not give it a special importance. This post opens the mystery of
mental power which was main point of Ronda Byrne’s book. The explanation of texture
of thought and resolution by Baba Faqir is a shining example of his maturity regarding
his internal analysis, which I'm convinced of).
(पिछली पोस्ट में शारीरिक जीवन शक्ति का महत्व और उसका रहस्य था. इसे रॉण्डा बर्न (Rhonda Byrne) की पुस्तक ‘The Secret’ में कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया. इस पोस्ट में मानसिक जीवन शक्ति के रहस्य का उद्घाटन है जिसे रॉण्डा बर्न ने अपनी पुस्तक का मुख्य बिंदु रखा है. विचार और संकल्प की जो बनावट बाबा फकीर ने बताई है वह उनके आंतरिक विश्लेषण की परिपक्वता का ज्वलंत उदाहरण है जिसका मैं कायल हूँ.)
The Secret-2
Mental life - The resolution originates
formation of the matter. Mind is made up of the same elements that made the
body. The only difference is that body is made of gross matter and the mind is
made of subtle matter. The way tasty food destroys physical health, same way the
mental health is lost if there is concentration on romantic ideas, which are
sexually explicit or meaningless gossip. To maintain the health of mind saints
have prescribed unspoken repetition of holy name, the purpose being good and
less thinking.
A person habitual of erotic thoughts
or mental immorality or chewing unnecessary thoughts can never attain real
mental peace. Finally, yes, he may become victim of misfortune.
I have, in many ways, experienced
this quote “As you sow, so shall you reap” and found it true. Here, sowing
means thinking.
The actual meaning of hating, criticizing
others and thinking against them is that we are sowing seeds of those thoughts
within us and we are sure to get the result of that. Thoughts are more powerful than our deeds because
they have the power to generate gross physical substance. So, entertaining
unfair, dirty and nasty thoughts lead to bad results. Therefore, the Saints
have set the following rules: -
So think purposefully. Eat for appetite.
Work to the purpose and think of only such things which are necessary and lead
you to the goal.
If, people, those have taken shelter
in Nam (holy name), do not follow the above principles, they will not achieve
anything. They will actually destroy themselves, because, in case, their wishes
are not fulfilled by holy name, they will say badly about Saints or have
hateful feelings for them and complain against their teaching, which will again
because of their own ignorance. Finally in accordance with the philosophy of thoughts,
their own thoughts will destroy them.
People of the present
day are absolutely ignorant of the power of thought. I will try to describe briefly the subject- ‘What
are thoughts’?
Thought
The present
day science has reached atoms i.e. an energy which produces gross matter found
in the entire universe. Now, I have to say that the readers must think about
their origin. Before entering the womb of your mother you were in father's
brain in the form of a germ in his semen. The germs were formed from the blood
and semen produced by food eaten by your father. The food had been received
from the earth. The earth cannot produce food without heat and light. Sun and
other stars are the origin of heat and light. Therefore your physical life is
nothing but light and heat mixed in gross matter and makes other organs of
body. Your mind is the creator of your body. Similarly universal mind, also
called the form of light is the creator of the five gross matters (Panch Mahabhoot).
Therefore, whatever man thinks in a state of
concentrated mind, whether in anger or in happy mood, it will create the same
sort of effect because the power of thought is sure to transform into gross
matter. So, what
you sow, so shall you reap or your thinking will transform into you. I hope you
know that and must have understood what I said. I have fully realized that whatever
happens to us or the creation is the result of our own thoughts.
रहस्य-2
मानसिक जीवन - संकल्प से ही भौतिक पदार्थ की उत्पत्ति होती है. मन भी उन्हीं तत्त्वों से बना है जिनसे कि देह बना है. अंतर केवल इतना है कि देह के बनाने वाले तत्त्व स्थूल पदार्थ के होते हैं और मन के बनाने वाले तत्त्व सूक्ष्म पदार्थ के होते हैं. जिस प्रकार स्वाद के वशीभूत अधिक खाने से शरीर की आरोग्यता नष्ट हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन रसिक विचारों पर, जो कामोत्तेजक हों या व्यर्थ की गपशप के हों, ध्यान करने से अपनी आरोग्यता नष्ट कर बैठता है. मन के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए संतों ने अजपा-जाप का साधन बताया है जिसका प्रयोजन कम और श्रेष्ठ बातों का सोचना है.
जो कामोत्तेजक विचारों के ध्यान में निमग्न रहता हो अथवा मानसिक व्यभिचारी हो अथवा जो अनावश्यक बातों पर मनन करता है, वह वास्तविक मानसिक शान्ति कभी प्राप्त नहीं कर सकता. हाँ, अंत में आपत्ति-विपत्ति का शिकार अवश्य होगा.
मैंने इस कहावत - ‘‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे’’ का अनुभव अनेकों प्रकार से किया है और इसे सच पाया है. यहाँ बोने से अभिप्राय सोचने से है.
दूसरों से घृणा करना, दूसरों की चुगली करना और दूसरों का बुरा सोचने का वास्तविक अर्थ यही है कि उन विचारों का बीज हम अपने अंतर में बोएँ और अनजान रूप से उनका फल पाएँ. विचार स्वयं हमारे कार्यों से अधिक शक्तिशाली है क्योंकि यह स्थूल भौतिक पदार्थ का उत्पन्न करने वाला है. अतः अनुचित विचार और मलिन व गंदी बातों के ध्यान से मनुष्य पर आपत्तियाँ आती हैं. इसलिए संतों ने निम्नलिखित नियम निर्धारित किए हैं: -
इतना सोचो जिससे प्रयोजन सिद्ध हो. इतना खाओ जितने से आवश्यकता की पूर्ति हो. इतना काम करो जिससे प्रयोजन पूरा हो सके अथवा वही सोचो जो आवश्यक और लक्ष्य तक हो.
जिन्होंने ‘नाम’ का आश्रय लिया है, यदि वे उपरोक्त सिद्धान्तों का पालन नहीं करते तो उनको कुछ प्राप्त नहीं होगा. वे वास्तव में अपने आपको नष्ट-भ्रष्ट कर लेंगे, क्योंकि जब नाम द्वारा उनकी वासनायें पूरी न होंगी, जो यह उनके अपने अज्ञान का कारण होगा, तो वे या तो संतों के बारे में बुरा-भला सोचेंगे या घृणित भावों से उनकी शिक्षा की शिकायत करेंगे. अन्त में विचार की फिलॉसफी के अनुसार उनके अपने विचार ही उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देंगे.
वर्तमान समय के लोग विचार की शक्ति से नितान्त अनभिज्ञ हैं. विचार क्या है इस विषय पर मैं आगे संक्षिप्त रूप में वर्णन करने का प्रयत्न करूँगा.
विचार
वर्तमान विज्ञान अणुओं यानि एक प्रकार की शक्ति तक पहुँचा है जो ब्रह्माण्ड व्यापी स्थूल पदार्थ को उत्पन्न करने वाली है. अब मेरा का यह कहना है कि पाठक अपनी उत्पत्ति के विषय पर विचार करें. तुम अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करने से पहले अपने पिता के मस्तिष्क में वीर्य के कीटाणु थे. वह कीटाणु उस भोजन से बने जो तुम्हारे पिता ने खाया और जिससे रक्त और वीर्य बना. यह खाद्य पदार्थ पृथ्वी से प्राप्त किये गये थे. गर्मी और प्रकाश के बिना पृथ्वी खाद्य पदार्थ उत्पन्न नहीं कर सकती. सूर्य और अन्य तारागण गर्मी और प्रकाश के मूल उद्गम हैं. इस प्रकार तुम्हारा शारीरिक जीवन वास्तविक रूप से स्थूल पदार्थ से मिला हुआ गर्मी और प्रकाश है और शारीरिक इन्द्रियों को उत्पन्न करता है. तुम्हारा मन ही तुम्हारे शरीर का रचने वाला है. इसी प्रकार ब्रह्माण्डी मन, जो ज्योति स्वरूप कहलाता है और सारी सृष्टि का रचने वाला है, स्थूल पदार्थों (पंच महाभूतों) को उत्पन्न करता है. इसलिए मनुष्य जो कुछ मन की एकाग्र अवस्था में सोचता है, चाहे वह क्रोध की सूरत में हो अथवा प्रसन्नता के रूप की दशा में हो, उसका वैसा ही प्रभाव अवश्य उत्पन्न होगा, क्योंकि विचार जो एक शक्ति है स्थूल पदार्थ में बदल जाती है. अतएव जो व्यक्ति जो कुछ बोएगा वैसा ही काटेगा अथवा जैसा तुम सोचोगे वैसा ही बनोगे. तुमको इन बातों का भली प्रकार ज्ञाता समझकर मैं यह आशा करता हूँ कि तुमने मेरे मन्तव्य को समझ लिया होगा. मैंने पूर्णतया यह अनुभव कर लिया है कि जो कुछ हम पर या सृष्टि पर गुज़रती या पड़ती है वह हमारे अपने ही विचारों का फल है.
नोट- (पुस्तक ‘सच्चाई’ प्रथमतः 1948 में अंग्रेज़ी में छपी फिर उसका उर्दू अनुवाद 1955 में छपा. हिंदी अनुवाद का प्रकाशन अलीगढ़ की ‘शिव’ पत्रिका ने 1957-58 में किया.)
MEGHnet
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गहन विश्लेष्णात्मक लेख.....
ReplyDeleteमानव जीवन के लिए अति उपयोगी....आभार
तुम्हारा मन ही तुम्हारे शरीर का रचने वाला है. इसी प्रकार ब्रह्माण्डी मन, जो ज्योति स्वरूप कहलाता है और सारी सृष्टि का रचने वाला है, स्थूल पदार्थों (पंच महाभूतों) को उत्पन्न करता है. इसलिए मनुष्य जो कुछ मन की एकाग्र अवस्था में सोचता है, चाहे वह क्रोध की सूरत में हो अथवा प्रसन्नता के रूप की दशा में हो, उसका वैसा ही प्रभाव अवश्य उत्पन्न होगा....
ReplyDeleteBeautifully described.
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मानव जीवन के लिए अति उपयोगी विश्लेष्णात्मक लेख|धन्यवाद|
ReplyDeleteबड़ी ज्ञानवर्धक पोस्ट लगी आपकी. पहली बार पहुंच पाया आपके ब्लॉग पर.पढ़कर अच्छा लगा.आप मेरे ब्लॉग पर आये,आभारी हूँ आपका.
ReplyDeleteइतना सोचो जिससे प्रयोजन सिद्ध हो. इतना खाओ जितने से आवश्यकता की पूर्ति हो. इतना काम करो जिससे प्रयोजन पूरा हो सके अथवा वही सोचो जो आवश्यक और लक्ष्य तक हो.....
ReplyDeleteThis is the theme of this article....
Very well said.
hamesha ki trh aaj bhi bahut kuchb sikha hai
aapki post se !
Thnx
Hardeep
*सुरेंद्र जी.
ReplyDelete*डॉ. दिव्या
*Patali-The-Village
*कुँवर कुसुमेश जी
*डॉ. हरदीप
आप सभी को धन्यवाद.
आपने सही कहा है ..विचारों को उर्धगामी बनाने हेतु हमें अजपा-जाप करना चाहिए .इस तरह हम धीरे-धीरे सूक्ष्म होने लगते है .विचारों के परिणाम को देखने में सक्षम होने लगते है ..धन्यवाद
ReplyDelete* Amrita ji
ReplyDeleteअपना अनुभव साझा करने के लिए धन्यवाद. इसी से मनुष्य को बल मिलता है.