आर्य
समय
सदा एक जैसा नहीं रहता.
इसमें
परिवर्तन आते रहते हैं.
साहित्य
पढ़ के देख लें, समय
एक जैसा नहीं रहा.
समय-समय
पर जगत में नाना प्रकार की
घटनाएँ हुईं.
समय-समय
पर महापुरुष इस संसार में आए.
अपना-अपना
काम करके चले गए.
उनके
काम से परिवर्तन भी आए.
आदमी
के ख्याल में बहुत बड़ी ताकत
है.
हमारे
जितने भी ख्याल हैं, ये
नष्ट नहीं होते.
ब्रह्मांड
में रहते हैं.
जिन
लोगों पर इस संसार में ज़ुल्म
ज़बरदस्ती की जाती है, वे
भी सहन करते हैं और चले जाते
हैं.
मगर
उन कष्टों के ख्याल और उनसे
बचने की इच्छा जो उनके अन्दर
मौजूद रहती है, उनके
मरने के बाद ऊपर के सूक्ष्म
लोकों में कष्ट सहने की भावना
और उससे रक्षा की भावना दोनों
ब्रह्माण्ड में काम करते हैं.
कष्ट
सहने वाले निर्बल होने के कारण
कुछ कर तो सकते नहीं मगर उनके
अन्दर स्वाभाविक ही पुकार
उठती है.
उस
पुकार के प्रभाव के अधीन प्रकृति
ने स्वामी दयानन्द जी महाराज
को जन्म दिया.
स्वाभाविक
ही पढ़ लिखकर, स्वामी
विरजानन्द जी से ज्ञान प्राप्त
करके उनकी आज्ञा अनुसार आर्य
समाज की स्थापना की और आर्य
समाज के काम में समाज द्वारा
दबाए हुए अपने ही भाइयों के
उद्धार का भी कार्यक्रम रखा.
ज्यों-ज्यों
समय गुज़रता गया ये मेघ जाति
के लोग जम्मू प्रांत के पहाड़ी
इलाकों से उतर कर अंग्रेजी
राज्य पंजाब में काफी संख्या
में आ बसे.
अधिकतर
पंजाब के गुरदासपुर, स्यालकोट
और गुजरात के जिलों, गाँवों
और कस्बों में आकर बसे.
उन्नीसवीं
सदी के अन्त में स्यालकोट में
मेघ उद्धार सभा खोली गई.
उस
सभा के सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता
लाला गंगाराम हुए.
जब
उनका नाम याद आता है, उनका
अहसान याद आता है.
उन्होंने
मेघ जाति के सुधार के लिए और
उन्नति के लिए बहुत काम किया, जिसे
मेघ जाति के लोग कभी भी भुला
नहीं सकते.
उस
सभा ने स्यालकोट में एक आर्य
स्कूल भी खोला.
उस
स्कूल में मेघ जाति के लड़के
मुफ़्त शिक्षा पाने लगे.
इनके
लिए मुफ़्त खाने-पीने
का भी प्रबंध था.
इस
सभा के लोग सभी आर्यसमाजी
विचारों के थे.
मेघ
जाति के लोगों में आर्य समाज
का प्रचार शुरू किया.
आर्य
समाज का मन्दिर भी बना.
पंजाब
के जिला मुलतान में ज़मीन
खरीदी गई और एक गाँव बसाया
जहाँ मेघ जाति के लोग पंजाब
और जम्मू की तरफ से आये और वहाँ
बसे.
इस
गाँव का नाम आर्य नगर रखा.
आर्य
समाज ने जम्मू में भी मेघ जाति
के भले के लिए बहुत काम किया.
उनकी
सहायता करते हुए, वहाँ
पर एक रामचन्द्र नाम का आर्य
समाज का उपदेशक अपनी जान
न्योछावर कर गया उसको अख़नूर
से जम्मू आने वाली नहर में
डुबो दिया गया.
आर्य
समाज के उपदेशक इनके घर-घर
जाकर, इनके
रहन सहन का ख्याल रखते हुए, आर्य
समाज का प्रचार करते और इस
जाति का नया नामकरण संस्कार ‘आर्य’ नाम
से किया.
आर्य
शब्द के कई अर्थ हैं.
जैसे
श्रेष्ठ और भद्रपुरुष, अपने
ही धर्म में लगा हुआ, इसके
अतिरिक्त आर्यवर्त के रहने
वाले इत्यादि और भी कई अर्थ
हैं.
तो
ऋषि दयानन्द जी महाराज और उनकी
बनाई गई आर्य समाज, इनके
श्रेष्ठ पुरुषों और उपदेशकों
के प्रचार के कारण मेघ जाति
के लोग और भगत लोग, आर्य
समाज के नियमों की रंगत में
रंगे गए.
जो
भी किसी गाँव, कस्बे
में या शहर में जाकर उनसे
मिलता, बातचीत
करता, इनसे
परिचय पूछता तो क्या बूढ़े, जवान
और बच्चे, स्त्रियाँ
अपने आपको आर्य बतातीं.
जिले
में आर्य नगर को देखने के लिए
बड़ी-बड़ी
दूर से लोग जाते थे, जहाँ
आर्यों के बिना और कोई नहीं
रहता था.
गाँव
को देख कर आर्यवर्त, आर्यों
का प्राचीन समय, आर्यों
की सभ्यता याद आती थी.
भगत
मंगल देव व भगत रामरखा को लोग
पंडित भी कहते थे, क्योंकि
उपदेश करते थे, संध्या, गायत्री
मंत्र सिखलाते थे.
मुझे
भी पंडित मंगल देव जी ने 1912
में
गायत्री मंत्र का जाप दिया
था.
ये
कवि भी थे.
इन्होंने
पूरन भगत का किस्सा लिखा.
यह
पूरन भगत स्यालकोट के राजा
सलवान का पुत्र था जिसे सौतेली
माँ के कारण घर छोड़ना पड़ा
और टिल्ले वाले महापुरुष गुरु
गोरखनाथ के चेले हुए.
इस
वक़्त के स्यालकोट में पूरन
भगत का बाग और पूरन भगत का कुआँ
मौजूद है.
पंडित
मंगल देव ने पूरन भगत के किस्से
में बड़ी सुन्दरता से उसका
जीवन लिखा.
पंडित
मंगल देव कोटली
लोहारां जिला स्यालकोट के
रहने वाले थे.
पूरन
भगत का किस्सा लिखते समय
उन्होंने अपने गाँव की बहुत
महिमा लिखी.
सारी
तो याद नहीं एक कड़ी याद हैः-
ब्राह्मण
बनिये, आर्ये, झयूर, छींबे,
विच
कोटली बहुत लोहार रहन्दे ।
इस
गाँव में मेघ जाति के लोग रहते
थे, मगर
आर्य कहलाते थे.
मुझे
याद है आर्य समाज के भजन गाए
जाते थे.
बड़े
प्रेम से गाते थे.
एक
भजन मुझे याद है जो हम बचपन
में गाया करते थे.
अजब
हैरान हूं भगवन!
तुम्हें
कैसे रिझाऊं मैं
कोई
वस्तु नहीं ऐसी, जिसे
सेवा में लाऊं मैं.
करें
किस तौर आवाहन कि तुम मौजूद
हो हर जां,
निरादर
है बुलाने को, अगर
घंटी बजाऊं मैं.
तुम्हीं
हो मूर्ति में भी, तुम्हीं
व्यापक हो फूलों में,
भला
भगवान पर भगवान को कैसे
चढाऊं मैं.
लगाना
भोग कुछ तुमको, यह
एक अपमान करना है,
खिलाता
है जो सब जग को, उसे
कैसे खिलाऊं मैं.
तुम्हारी
ज्योति से रोशन हैं, सूरज, चांद
और तारे,
महा
अन्धेर है कैसे तुम्हें दीपक
दिखाऊं मैं.
यह
गीत उस समय लिखा गया जब आर्य
समाज जोरों पर था और मूर्ति
पूजा के विरुद्ध ख्याल लिखे
गए.
उस
वक़्त के जो सनातन धर्मी लोग
थे वे ऐसे गीतों को बुरा मानते
थे, अपने
सनातन धर्म के विरुद्ध समझते
थे.
मगर
जब किसी आदमी को असलीयत का पता
लग जाता है, तो
उसके सब मतभेद समाप्त हो जाते
हैं.
इसमें
निराकार या निर्गुण ब्रह्म
की महिमा गायी गई है.
शुरू-शुरू
में ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें
साकार भक्ति, साकार
पूजा का आसरा लेना पड़ता है.
समय
आने पर साकार पूजा अपने आप छूट
जाती है.
उसके
बाद निराकार पूजा आती है.
समय
आता है जब वह भी छूटती है, फिर
केवल चेतन ब्रह्म ही रह जाता
है, जो
सब चीजों में व्यापक है, फूलों
में, मूर्ति
में या और भी जितनी वस्तुएँ
हैं जिनसे साकार पूजा करके
सब छूट जाते हैं.
समय
आता है आदमी आर्य बन जाता है.
अपने
रूप का पता लग जाता है कि मैं
कौन हूँ.
उस
समय सब एक हो जाते हैं.
समझे
का मत एक है.
उस
वक़्त यह शब्द गाकर हम खुश
होते थे कि मूर्ति पूजा ठीक
नहीं.
सनातन
धर्म वाले पीछे रह गए.
आर्य
समाज बड़ी है.
हम
आर्यसमाजी हैं.
इस
प्रकार की खुशी मिलती है.
मगर
बात को समझ कर सच्ची शांति का
ज्ञान नहीं होता था.
जिसको
अपना ज्ञान हो गया सच्ची शांति
मिल गई वही सच्चा आर्य है.
अगर
गहराई से सोचा जाए तो मेघ, भगत
और आर्य शब्दों का एक ही भाव
है.
कोई
देश है जिसे नाना प्रकार के
नामों से प्रकट किया गया
है, जहाँ
से सब मानव जाति के लोग आते
हैं.
आर्य
शब्द का भी असली अर्थ (स्वधर्मरत)
जो
अपने आपको जानता है कि मैं
कहाँ से आया हूँ, वही
सच्चा आर्य है.
भगत
मुंशीराम
(मेघमाला
से)
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